Monday, February 6, 2012

वाम-जनतांत्रिक एकता की मुश्किलें

वाम-जनतांत्रिक एकता की मुश्किलें


Tuesday, 07 February 2012 10:29

सत्येंद्र रंजन 
जनसत्ता 7 जनवरी, 2012: मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी देश को वाम जनतांत्रिक (कम्युनिस्ट शब्दावली में- जनवादी) विकल्प उपलब्ध कराने की दिशा में बढ़ना चाहती है, तो यह स्वाभाविक ही है कि वाम-जनतांत्रिक एकता उसके एजेंडे का प्रमुख हिस्सा बने। पार्टी ने अपनी बीसवीं कांग्रेस के लिए राजनीतिक प्रस्ताव का जो मसविदा तैयार किया है, उसमें वाम-जनतांत्रिक विकल्प तैयार करने का लक्ष्य रखा गया है। उम्मीद है कि अगले अप्रैल में कोझिकोड में पार्टी-कांग्रेस में इस नई दिशा और इससे जुडेÞ कार्यक्रमों को मंजूरी मिल जाएगी। कहा जा सकता है कि सिद्धांत रूप में पार्टी ने देश की मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों की ठोस समझ बनाई है। 
जिस समय देश में नव-उदारवादी व्यवस्था को व्यापक राजनीतिक दायरे में एक आम स्वीकृति-सी मिली हुई है, उस समय नीति संबंधी बहसों में वाम-जनतांत्रिक एजेंडे को लाना और उससे राजनीति की दिशा को प्रभावित करना निस्संदेह एक जरूरी लक्ष्य है। पर इस लक्ष्य की दिशा में चलना शायद उतना आसान नहीं है, जितना इसकी जरूरत को महसूस करना। इस रास्ते के कई पेच दरअसल माकपा के राजनीतिक प्रस्ताव के बासठ पेज के मसविदे में ही छिपे नजर आते हैं।
वाम-जनतांत्रिक एकता के दो पहलू हैं। पहला सवाल वाम शक्तियों की एकता का है और उसके बाद अन्य जनतांत्रिक शक्तियों के साथ सहमति तैयार करने का प्रश्न है। अगर पहले वाम समूहों की एकता पर विचार करें तो इस बारे में माकपा का कहना है कि चार वामपंथी दल दो दशक से राष्ट्रीय स्तर पर एकजुट होकर काम कर रहे हैं और इन दलों के ''बाहर कई वाम सोच वाले समूह और व्यक्ति हैं, जिन्हें उन मुद्दों के मंच पर लाया जाना चाहिए, जिनकी वकालत वामपंथ करता है। इसके लिए पार्टी को पहल करनी चाहिए।'' राजनीतिक प्रस्ताव के मसविदे में यह अपेक्षा नहीं की जा सकती कि पार्टी वामदलों से बाहर वाम सोच वाले व्यक्तियों और समूहों को भी चिह्नित करे। लेकिन बड़ी बहस में यह सवाल सामने आएगा। आखिर माकपा जब उन समूहों और व्यक्तियों के बारे में सोचती है, तो वे आखिर कौन हैं? 
यह प्रश्न इसलिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि वाम दलों से बाहर के ऐसे समूहों और व्यक्तियों में संगठित वामपंथ के प्रति विरोध भाव किस हद तक बैठा हुआ है, यह पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे की हार पर उनके जश्न से जाहिर हो चुका है। आखिर आपसी द्रोह की इस खाई को कैसे भरा जाएगा? हकीकत यह है कि वाम झुकाव वाले समूहों में जो विरोध-भाव दिखता है, उसकी जडेंÞ कार्यक्रम संबंधी मतभेदों में कम और मनोवैज्ञानिक पहलुओं में ज्यादा छिपी हुई हैं। यह किसमें कितना ज्यादा है, यह मापना यहां विषय नहीं है।
मगर वाम मोर्चे से बाहर जो वाम समूह हैं, उनमें वाम चरमपंथ के प्रति रूमानी झुकाव है, जिसकी आज सबसे बड़ी सांगठनिक उपस्थिति सीपीआई (माओवादी) के रूप में है। माओवादियों ने पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चे का किला ढाहने में पूरे उत्साह से सक्रिय भूमिका निभाई। इससे उन्हें क्या हासिल हुआ, या उनकी समझ में इससे देश को क्या फायदा हुआ, यह उनके अपने आकलन का मुद्दा है। लेकिन उनसे और उनके समर्थक वाम समूहों-व्यक्तियों से वाम मोर्चे (या माकपा) के संवाद की गुंजाइश नहीं है। 
अपने मसविदे में माकपा ने माओवादियों की 'विध्वंसकारी' गतिविधियों की लंबी सूची देने के बाद कहा है- ''अत: माओवादियों का धुर-वामपंथी दुस्साहसवाद से भी आगे पतन हो गया है। उनकी प्रतिगामी विचारधारा और विध्वंसकारी राजनीति को बेनकाब करते हुए उनसे संघर्ष करना होगा।'' इसके साथ ही खुद को कहीं अधिक 'शुद्ध' वामपंथी मानने वाले एक बडेÞ समूह के साथ एकता की संभावना खत्म हो जाती है। 
जहां तक खुद को 'नव-वामपंथी' कहने वाले समूहों की बात है, तो उनमें ज्यादातर माकपा या भाकपा से ही निकले हुए लोग हैं, जो वाम मोर्चे के प्रति विफल प्रेमी जैसा आवेग पाले रहते हैं। यह परिदृश्य वाम एकता की बातों के आगे एक यथार्थवादी अवरोध खड़ा कर देता है। आखिर माकपा को यह तो तय करना ही होगा कि वाम एकता की अपनी पहल के तहत वह किन लोगों या गुटों तक पहुंच बनाने का इरादा रखती है? वरना सिद्धांतत: वाम एकता की बात करने का कोई व्यावहारिक मतलब नहीं है।
वाम एकता का प्रश्न जितना उलझा हुआ है, उससे कहीं बड़ी गुत्थी वाम-जनतांत्रिक एकता की है। इस पर खुद माकपा उलझन में दिखती है। पार्टी ने दलितों, आदिवासियों और मुसलिम अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न या शोषण पर अलग से चर्चा करते हुए उनके लिए अलग से मांगें भी प्रस्तुत की हैं, लेकिन अस्मिता की राजनीति के प्रति उसका रुख बेहद सख्त है। पार्टी ने कहा है- ''जाति, धर्म, कबीले या नस्ल के आधार पर अस्मिता की राजनीति का विकास देश में वाम राजनीति के लिए एक बड़ी चुनौती पेश कर रहा है। शासक वर्ग और साम्राज्यवादी वित्तीय पूंजी को ऐसी राजनीति पूर्णत: अपने हित में महसूस होती है। अस्मिता के आधार पर लोगों को बांटने, और अस्मिता की राजनीति के आधार पर उन्हें विभाजित और अलग बनाए रखने से यह सुनिश्चित हो जाता है कि राज्य या पूंजी के शासन को कोई खतरा पैदा न हो।'' क्या इस समझ के बावजूद माकपा दलित या आदिवासी अस्मिता के आधार पर बने किसी संगठन या पार्टी से साझा मंच बना सकती है? 
इसी क्रम में क्षेत्रीय दलों के बारे में माकपा की राय पर गौर कर लेना उचित होगा। राजनीतिक प्रस्ताव के प्रारूप में में कहा गया है- ''अधिकतर क्षेत्रीय


दल क्षेत्रीय बूर्जुवा और ग्रामीण धनी तबकों के   हितों की नुमाइंदगी करते हैं। इनमें से कई दलों की राजनीति में कांग्रेस या भाजपा के प्रति अवसरवादी नजरिया परिलक्षित होता है।'' फिर भी माकपा कहती है कि 'इन पार्टियों द्वारा दिखाई गई अस्थिरता के बावजूद हमारा नजरिया संसद में गैर-कांग्रेस धर्मनिरपेक्ष दलों के साथ सहयोग का होना चाहिए।' इसमें कोई समस्या नहीं है। लेकिन इसके बाद का वाक्य जरूर समस्याग्रस्त महसूस हो सकता है कि 'संसद के बाहर हम जनता के मुद्दों पर आंदोलन को विस्तृत करने के लिए (इन दलों के साथ) संयुक्त कार्य कर सकते हैं।'
समस्याग्रस्त यह इसलिए  है कि पार्टी ने वाम की स्वतंत्र भूमिका को मजबूत करने को अपना लक्ष्य घोषित करते हुए कहा है कि 'बुनियादी तबकों के बीच पार्टी के कार्य को प्राथमिकता दी जानी चाहिए।' इसके आगे वाम जनतांत्रिक कार्यक्रम की सूची बनाते हुए पार्टी ने भूमि सुधारों और कृषि संबंधों के जनतांत्रिक रूपांतरण को सर्वोच्च प्राथमिकता दी है। साथ ही इसमें नियोजित विकास, खनन और प्राकृतिक संसाधनों के राष्ट्रीयकरण और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय प्रवाह पर कडेÞ विनियमन जैसी मांगें भी शामिल हैं। सवाल है कि अगर क्षेत्रीय दल ग्रामीण धनी तबकों की हित-रक्षक पार्टियां हैं, तो क्या उनके साथ इन मांगों पर कोई वास्तविक सहमति बन सकती है; या जब माकपा बुनियादी तबकों को संगठित करने का प्रयास करेगी, तब उसका इन दलों से अंतर्विरोध नहीं उभरेगा? यह सवाल इसलिए है, क्योंकि पार्टी ने अपना लक्ष्य 'कांग्रेस और भाजपा से राजनीतिक संघर्ष' घोषित किया है।
माकपा इन दोनों पार्टियों को 'बड़े बुर्जुआ, जमींदारी व्यवस्था की प्रतिनिधि' मानती है, जिन्हें वह वर्ग-शोषण और विभिन्न जन-समूहों के सामाजिक उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार मानती है। यह बात बड़ी विचित्र है कि ग्रामीण धनी वर्गों की प्रतिनिधि पार्टियों से सहयोग का रास्ता खुला रखा जाए, जबकि सिर्फ दो पार्टियों को वर्ग-शोषण और सामाजिक उत्पीड़न के तर्क पर मुख्य शत्रु घोषित कर दिया जाए।
यह कहा जा सकता है कि राजनीतिक स्थितियां काले और सफेद में नहीं बंटी होतीं। बल्कि 'जनतांत्रिक' की भी कोई तयशुदा परिभाषा नहीं है। यह समय और स्थान के आधार पर बदलती रहती है। हम किसे जनता का हिस्सा मानें और किसे शत्रु- यह खास परिस्थिति पर निर्भर करता है। यह समाज में मौजूद विभाजन-रेखाओं (फॉल्टलाइन्स) की अपनी समझ से तय होता है। भारतीय समाज में आज आखिर कौन-सी विभाजन-रेखाएं सबसे प्रमुख हैं? भारतीय जनता पार्टी के केंद्र की सत्ता में आने के बाद माकपा ने जो दिशा तय की थी, उसमें सांप्रदायिकता (जो बाद में सांप्रदायिक फासीवाद की आशंका में तब्दील होती गई) को सर्वप्रमुख विभाजन-रेखा माना गया था। इसी मान्यता से कांग्रेस से सहयोग की राह निकली थी, जो यूपीए-एक के जमाने में वाम मोर्चे द्वारा बाहर से दिए गए समर्थन के तौर पर ठोस रूप से सामने आई। 
यह सहीहै कि कांग्रेस ने 2004 के जनादेश से एक तरह से विश्वासघात किया। इसकी पीड़ा माकपा कार्यकर्ताओं के मन में हो, यह अस्वाभाविक नहीं है। लेकिन राजनीतिक दिशा जज्बातों से नहीं, ठोस हकीकत से तय होती है। क्या सांप्रदायिक फासीवाद का खतरा आज देश से खत्म हो गया है? क्या सांप्रदायिकता अब एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक विभाजन-रेखा नहीं रही? माकपा को अपनी कांग्रेस में इन प्रश्नों पर जरूर विचार करना चाहिए। नव-उदारवाद, पूंजीवाद की सेवा, भ्रष्ट-आचरण आदि भी निसंदेह विभाजन-रेखाएं हैं, जिनके आधार पर राजनीतिक दिशा तय हो सकती है। लेकिन इन आधारों पर तय 'जनतांत्रिक' दायरे में आखिर वे क्षेत्रीय दल किस आधार पर समाहित होंगे, यह समझना कठिन है।
पार्टियों के दायरे से बाहर 'जनतांत्रिक' शक्तियों की खोज माकपा के लिए और भी दुरूह साबित होने वाली है। जो मनोवैज्ञानिक समस्या वामपंथ के संगठनों और व्यक्तियों में है, वह कथित व्यापक जनतांत्रिक दायरे में कोई कम नहीं है। भारत की वाम-जनतांत्रिक राजनीति की मुश्किल यह है कि इसमें रुख 'जनता के आंतरिक अंतर्विरोधों' की समझ और उनके आधार पर तय रणनीति से नहीं, बल्कि व्यक्तिगत या सांगठनिक राग-द्वेष से ज्यादा तय होते हैं। अगर एकता का सपना छोड़ दिया जाए, तो अपने-आप में भारत का जनतांत्रिक दायरा संकरा नहीं है। अस्मिता आधारित संगठनों से लेकर एक-मुद्दा केंद्रित संघर्षों तक फैले इस दायरे ने राष्ट्रीय राजनीति के एजेंडे को भी एक हद तक प्रभावित किया है। 
संघर्षों के एनजीओकरण संबंधी शिकायतें अपनी जगह सही हैं, लेकिन इस क्रम में हुई एडवोकेसी (जन-वकालत) ने जनतांत्रिक बहसों को समृद्ध करने में एक भूमिका निभाई है। लेकिन इस परिघटना की सीमा यह है कि उससे कोई वैकल्पिक राजनीति नहीं निकलती। बल्कि वह उस राजनीति को कुंद करती ज्यादा नजर आती है, जिसमें नव-उदारवादी व्यवस्था को चुनौती देने की संभावना हो। माकपा जब वाम-जनतांत्रिक एकता की बात करती है, तो इसलिए उसकी एक विशिष्ट प्रासंगिकता समझ में आती है। मगर दिक्कत यह है कि व्यवहार में उस एकता में समाहित होने वाली शक्तियों की पहचान और उन तक पहुंच अत्यंत कठिन है। माकपा और प्रकारांतर से वाम मोर्चे को वामपंथ की स्वतंत्र भूमिका को मजबूत करने के रास्ते पर ही चलना होगा। 
इसका रास्ता 'बुनियादी तबकों' में अपनी जड़ें मजबूत करना ही है। लेकिन जब बात विभिन्न शक्तियों से सहयोग की हो, तब उसे मौजूदा सामाजिक विभाजन रेखाओं की यथार्थवादी समझ का परिचय देना चाहिए। दलित, आदिवासी और मुसलिम अल्पसंख्यक अगर   उत्पीड़ित हैं, तो वर्ग आधारित शोषण के अलावा पुरातन सोच पर आधारित सांप्रदायिक विचारधारा भी उसका एक बड़ा पहलू है। इस बात को नजरअंदाज कर उनकी मुक्ति की राजनीति विकसित नहीं हो सकती।

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