Thursday, February 16, 2012

वित्तमंत्री की नींद क्यों उड़ी है

वित्तमंत्री की नींद क्यों उड़ी है


Wednesday, 15 February 2012 10:39

आनंद प्रधान 
जनसत्ता 15 फरवरी, 2012 : वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की नींद उड़ गई है। उनका कहना है कि जब भी वे सब्सिडी के बढ़ते बोझ के बारे में सोचते हैं, उनकी रातों की नींद उड़ जाती है। असल में, वित्तमंत्री ने चालू वित्तीय वर्ष के बजट में विभिन्न मदों (खासकर खाद्य, उर्वरक और पेट्रोलियम) में कुल 1.43 लाख करोड़ रुपए की सब्सिडी का अनुमान लगाया था, लेकिन रिपोर्टों के मुताबिक, इसमें लगभग एक लाख करोड़ रुपए की और बढ़ोतरी होने के आसार हैं। इससे प्रणब मुखर्जी की नींद उड़ी हुई है और उन्हें बुरे सपने आ रहे हैं। 
प्रणब मुखर्जी पहले वित्तमंत्री नहीं हैं, जिनकी सब्सिडी के बढ़ते बोझ के कारण नींद उड़ी हुई है। उनसे पहले के वित्तमंत्रियों के लिए भी सब्सिडी एक दु:स्वपन की तरह रही है और वे अपनी चिंता का इजहार करते रहे हैं। खासकर हर आम बजट के पहले बिना किसी अपवाद के वित्तमंत्रियों का सब्सिडी-रोदन शुरू हो जाता है। यह वित्त मंत्रियों की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है। इसके जरिए वे एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश करते रहे हैं। एक, सब्सिडी के बढ़ते बोझ का हौव्वा खड़ा करके उसमें कटौती के लिए माहौल बनाना और दूसरे, कटौती संभव न हो पाए तो कम से कम उसमें बढ़ोतरी के रास्ते बंद कर देना। 
प्रणब मुखर्जी भी अपवाद नहीं हैं। आश्चर्य नहीं कि उनका बयान ऐसे समय में आया है जब नए बजट की तैयारियां जोर-शोर से जारी हैं। जाहिर है कि बजट से पहले वे बढ़ती सब्सिडी का हौव्वा खड़ा करके उसमें कटौती के पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं। यही नहीं, इसके जरिए वे आने वाले बजट पर से बढ़ती अपेक्षाओं का बोझ भी कम करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वे हर तरह की सब्सिडी को निशाना बनाने जा रहे हैं। असल में, उनके निशाने पर अमीरों और कॉरपोरेट को मिलने वाली सब्सिडी नहीं, बल्कि उनकी नजर किसानों को मिलने वाली उर्वरक और डीजल सब्सिडी, खासकर गरीबों की खाद्य सब्सिडी पर है। 
इसका सबूत यह है कि पिछले दो बजटों में भी उन्होंने उर्वरक, पेट्रोलियम और खाद्य सब्सिडी को ही कटौती का निशाना बनाया था। उदाहरण के लिए, इन तीनों मदों में आम चुनाव के वर्ष 2009-10 में कुल सब्सिडी 1.41 लाख करोड़ रुपए थी, लेकिन सत्ता में आते ही 2010-11 के पहले बजट में उन्होंने सब्सिडी के मद में पचीस हजार करोड़ रुपए की कटौती करते हुए बजट में 1.16 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया। यह और बात है कि 2010-11 के संशोधित बजट अनुमान में सब्सिडी बजट अनुमान से अड़तालीस हजार करोड़ रुपए बढ़ कर 1.64 लाख करोड़ पहुंच गई। लेकिन प्रणब मुखर्जी ने एक बार फिर 2011-12 के बजट अनुमान में इक्कीस हजार करोड़ रुपए की कटौती करते हुए 1.43 लाख करोड़ रुपए का प्रावधान किया, जिसके संशोधित अनुमान में फिर बढ़ कर 2.43 लाख करोड़ रुपए तक पहुंचने की रिपोर्टें हैं। 
इससे साफ  है कि हर बजट में सब्सिडी में कटौती के बावजूद संशोधित बजट अनुमान में उसमें बढ़ोतरी हुई है, क्योंकि सब्सिडी के बजट अनुमान वास्तविकता से परे और बड़ी देशी-विदेशी पूंजी की वाहवाही लूटने के लिए पेश किए जाते हैं। गौरतलब है कि सब्सिडी में 'भारी बढ़ोतरी' के कोहराम बावजूद यह जीडीपी की मात्र तीन फीसद बैठती है। 
लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि एक ओर गरीबों और किसानों को दी जाने वाली इस मामूली राहत को सब्सिडी और अर्थव्यवस्था की वित्तीय सेहत के लिए घातक बता कर निशाना बनाया जा रहा है। वहीं दूसरी ओर, हर बजट में बिना अपवाद के अमीरों और कॉरपोरेट क्षेत्र को दी जाने वाली लाखों करोड़ रुपए की छूट और रियायतों को सब्सिडी न कह कर प्रोत्साहन कहा जाता है और उसमें साल दर साल बढ़ोतरी होने के बावजूद वित्तमंत्री की नींद पर कोई असर नहीं पड़ता है। 
तथ्य यह है कि वर्ष 2010-11 के बजट में अमीरों और कॉरपोरेट्स को आयकर, कॉरपोरेट टैक्स, सीमा शुल्क और उत्पाद करों में पांच लाख ग्यारह हजार छह सौ तीस करोड़ रुपए की छूट और रियायतें दी गर्इं। यह अकेले जीडीपी का छह फीसद से ज्यादा है।
इसका अर्थ यह हुआ कि जिस सब्सिडी से वित्तमंत्री की नींद उड़ जाती है, अमीरों और कॉरपोरेट्स को उसके कोई सवा दो गुने से भी ज्यादा की छूटों और रियायतों से उनकी नींद में कोई खलल नहीं पड़ता। मजे की बात है कि यह छूट अर्थव्यवस्था और विकास के लिए जरूरी मानी जाती है, जबकि गरीबों और किसानों को दी जाने वाली मामूली राहत, जिसका बड़ा हिस्सा कंपनियों और भ्रष्ट अफसरों, नेताओं, ठेकेदारों की जेब में जाता है, उसे अर्थव्यवस्था के लिए बोझ बताया जाता है। इसके बावजूद मजा देखिए कि जैसे ही वित्तमंत्री का बढ़ती सब्सिडी के कारण नींद उड़ने का बयान आया, नव उदारवादी आर्थिक सुधारों के समर्थकों और उनके सबसे बड़े मुखपत्र बन गए गुलाबी अखबारों को मौका मिल गया।  
प्रणब मुखर्जी को सब्सिडी के मुद्दे पर सख्ती बरतने और उसमें कटौती के सुझाव दिए जाने लगे। ऐसा लगा जैसे वित्तमंत्री से ज्यादा नींद तो गुलाबी अखबारों के संपादकों और आर्थिक सुधारों के पैरोकारों की उड़ी हुई है। उनके मुताबिक, 'अर्थव्यवस्था और देश के विकास' की राह में सबसे बड़ा रोड़ा बनी इन सब्सिडियों से पीछा छुड़ाने का अंतिम अवसर है, क्योंकि अगले साल चुनावी वर्ष का बजट होगा। उसमें प्रणब मुखर्जी पर लोकलुभावन घोषणाएं करने का दबाव होगा।


इसलिए इस बात के पक्के आसार हैं कि इस साल के बजट में वित्तमंत्री अपनी मानसिक शांति और नींद   के लिए एक बार फिर उर्वरक, डीजल और खाद्य सब्सिडी को कटौतियों का निशाना बनाएं। 
आश्चर्य नहीं होगा अगर इसकी शुरुआत उत्तर प्रदेश और गोवा विधानसभा चुनाव के लिए तीन मार्च को मतदान के तुरंत बाद पिछले दो-तीन महीनों से पेट्रोल और डीजल की कीमतों में रुकी वृद्धि की घोषणा हो जाए। साफ  है कि लोकतंत्र के भ्रम और चुनावों की मजबूरी न हो तो बजट से किसानों और गरीबों को मिलने वाली मामूली राहत का भी नामोनिशान मिट जाए। इस मजबूरी को खत्म करने के लिए ही सैद्धांतिक तौर पर अर्थनीति को राजनीति के दबावों से मुक्त करने की वकालत की जाती रही है। दूसरी ओर, चुनावी मजबूरी से बचने के लिए ही भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी लोकसभा और विधानसभा चुनावों को एक साथ कराने पर जोर देते रहे हैं। 
लेकिन सवाल है कि यह जानते हुए भी कि बजट में सब्सिडी में कटौती के बावजूद वास्तविकता में उसमें बढ़ोतरी हो रही है, प्रणब मुखर्जी इतने परेशान क्यों हैं? असल में, वे इस सब्सिडी को लेकर उतने परेशान नहीं हैं, जितने खाद्य सब्सिडी को लेकर बेचैन हैं। उनकी नींद इस बात से उड़ी हुई है कि आने वाले बजट में प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून के मद्देनजर खाद्य सब्सिडी का बजट बढ़ना तय है। मोटे अनुमानों के मुताबिक, खाद्य सुरक्षा कानून के लागू होने की स्थिति में खाद्य सब्सिडी के मौजूदा साठ हजार करोड़ रुपए के बजट में कोई पचीस से पैंतीस हजार करोड़ रुपए की वृद्धि हो सकती है। 
हालांकि वित्तमंत्री ने राजनीतिक संकोच में यह खुल कर नहीं कहा है, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं है कि वित्त मंत्रालय खाद्य सब्सिडी में इस 'भारी वृद्धि' को लेकर खुश नहीं है। सच यह है कि खाद्य सब्सिडी में वृद्धि के डर से खाद्य सुरक्षा कानून का खुद यूपीए सरकार के अंदर दबे-छिपे खासा विरोध हो रहा है। कृषिमंत्री शरद पवार तो अपनी नाखुशी कई मौकों पर खुल कर जाहिर कर चुके हैं। यही कारण है कि पिछले डेढ़-दो सालों में इस प्रस्तावित कानून को अमल में आने से रोकने और उसे कमजोर और सीमित करने की हर संभव कोशिश की गई है। हैरानी की बात नहीं है कि यूपीए-2 सरकार का खाद्य सुरक्षा का यह सबसे महत्त्वाकांक्षी कार्यक्रम पिछले ढाई सालों से विभिन्न मंत्रालयों-समितियों के खींचतान में फंसा रहा। 
इस दौरान इसे रोकने और कमजोर करने की भरपूर कोशिश की गई। इसके लिए सबसे अधिक खाद्य सब्सिडी के बजट में संभावित 'भारी बढ़ोतरी' को मुद्दा बनाया गया। यहां तक कि इसके खिलाफ एक व्यापक कुप्रचार अभियान शुरू कर दिया गया, जिसमें बहुत सोचे-समझे तरीके से खाद्य सुरक्षा कानून लागू होने के बाद खाद्य सब्सिडी के बजट में दो से तीन गुनी वृद्धि के आकलन पेश किए जाने लगे। सरकार के एक बड़े अफसर तो इसका बजट छह लाख करोड़ रुपए तक ले गए। 
खाद्य सब्सिडी में 'भारी वृद्धि' के इन काल्पनिक अनुमानों के पीछे असली मकसद वित्तीय घाटे में भारी बढ़ोतरी और इस कारण 'वित्तीय ध्वंस' का हौव्वा खड़ा करना था ताकि खाद्य सुरक्षा कानून को रोका और लटकाया जा सके। हालांकि इसमें नया कुछ भी नहीं है। इससे पहले भी ग्रामीण रोजगार गारंटी कानून और किसानों की कर्ज माफी के मुद्दे पर भी इसी तरह का अभियान चलाया गया था। इस बार निशाने पर खाद्य सुरक्षा कानून है। चिंता की बात यह है कि इस अभियान में प्रधानमंत्री के बाद अब खुद वित्तमंत्री भी शामिल हो गए हैं। 
दिलचस्प है कि खुद कृषि मंत्रालय के खाद्य और सार्वजनिक वितरण विभाग का अनुमान है कि इस कानून को लागू करने में मौजूदा बजट प्रावधान की तुलना में सिर्फ सताईस हजार करोड़ रुपए अधिक खर्च होंगे। यही नहीं, ज्यादातर तार्किक अनुमानों में इस कानून को लागू करने के लिए अधिकतम पंचानबे हजार करोड़ से लेकर 1.10 लाख करोड़ रुपए खर्च होने का आकलन है। यह रकम जीडीपी के 1.4 फीसद के आसपास बैठती है। सवाल है कि क्या खुद को दुनिया की एक बड़ी आर्थिक महाशक्ति के रूप में पेश कर रहा देश अपने भूखे लोगों के लिए दो जून के भोजन के लिए जीडीपी का 1.4 फीसद खर्च नहीं कर सकता है? 
सवाल यह भी उठता है कि क्या वित्तमंत्री की नींद कभी इस तथ्य से उड़ती है कि देश में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक कोई तीस करोड़ से अधिक भारतीय ऐसे हैं, जिन्हें एक जून भी भरपेट भोजन नहीं मिलता? क्या उन्हें भी प्रधानमंत्री की तरह यह राष्ट्रीय शर्म महसूस होती है कि देश में कोई बयालीस फीसद बच्चे कुपोषण के शिकार हैं? क्या वित्तमंत्री को इस बात से बेचैनी होती है कि देश में कोई अठहत्तर फीसद लोग प्रतिदिन बीस रुपए से कम की आय पर गुजारा करने को मजबूर हैं? क्या उनकी नींद इस बात से भी उड़ती है कि आसमान छूती महंगाई के बीच आम आदमी कैसे जी रहा है? 
कहना मुश्किल है कि इन और इन जैसी अनेक कड़वी सच्चाइयों से वित्तमंत्री की नींद पर असर पड़ता है, लेकिन इतना तय है कि ये किसी भी संवेदनशील इंसान की नींद उड़ाने के लिए काफी हैं। गांधीजी ने कहा था कि कोई भी फैसला करने से पहले सबसे आखिरी पायदान पर खड़े आदमी की सोचो कि क्या वह उसके आंसू पोंछ पाएगा? क्या प्रणब मुखर्जी को गांधी की यह जंत्री याद है? बजट का इंतजार कीजिए।

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