Monday, February 13, 2012

हर शहर के आसपास इत्‍मीनान के लम्‍हों वाले गांव होते हैं!

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आमुखमोहल्ला मुंबईसिनेमा

हर शहर के आसपास इत्‍मीनान के लम्‍हों वाले गांव होते हैं!

13 FEBRUARY 2012 2 COMMENTS
मुंबई डायरी
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उमेश पंत
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Umesh Pant

सजग चेतना के पत्रकार, सिनेकर्मी। सिनेमा और समाज के खास कोनों पर नजर रहती है। मोहल्‍ला लाइव, नयी सोच और पिक्‍चर हॉल नाम के ब्‍लॉग पर लगातार लिखते हैं। फिलहाल मुंबई में हैं। उनसे mshpant@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।

♦ उमेश पंत

मुंबई और मेरे रिश्ते की उम्र आज एक साल एक महीना और कुछ 10 दिन हो चुकी है। ये शहर मेरे लिए अब उतना अजनबी नहीं रह गया है। जैसे जैसे अजनबीयत खत्म होने लगती है, वैसे वैसे रहस्य छंटने लगते हैं। नयापन धुंधला होने लगता है। पुरानापन हावी होने लगता है। आकर्षण खत्म होने का डर लगने लगता है। पर मायानगरी मुंबई के अनुभवों के इस अथाह समंदर के लिए मेरे ही क्या हर किसी के आकर्षण की उम्र महज एक साल तो नहीं हो सकती…

चीजें जब बेहद अपनी होने लगती हैं, तो उनके लिए हमारा आकर्षण कम होने लगता है। मुंबई जैसे बड़े शहर इतनी जल्दी और इतनी आसानी से अपने नहीं होते। शायद इसीलिए इस शहर के लिए लोगों का खिंचाव लंबे समय तक बना रहता है।

इस बीच मुंबई के भीतर ही नहीं, मुंबई के इर्द-गिर्द भी आना-जाना हुआ। कुछ ऐसे समुद्री किनारे तलाशे, जहां इतवारी शामों को बेहद खूबसूरती से बिताया जा सकता है। कई बार हम दूरियों को अपने अनुमान के आधार पर ही बिना समझे-बूझे बहुत बड़ा कर देते हैं। शायद इसीलिए जिस दिन पता चला कि दमन मुंबई से बस तीन घंटे के रास्ते की दूरी भर पर है, उस दिन एक हैरत सी हुई। इस बेहद खूबसूरत समुद्री किनारे के सफर में दो चीजों ने मोह लिया। पहला था रेशाद मसालों में पके स्रिम्स यानी सी फूड का जायका। इस स्थानीय मसाले का जायका स्वाद की दुनिया को बहुत देर तक आप की जीभ में आबाद रखता है।

दमन के बारे में जो दूसरी खास बात थी वो शराब पीने की प्रक्रिया का बेहद कम खर्चीला और लोकतांत्रिक होना। सोचिए कि समंदर किनारे बने शैक्स में एक पूरा परिवार बैठा है। अपने मां, बाप, भाई, बहन के साथ बैठा एक लगभग बारह साल का बच्चा बिना हिचके साकी की भूमिका निभा रहा है। उसके नन्‍हें से हाथ और गिलासों में भरती शराब। दूसरे दृश्य में एक रेस्टोरेंट है, जहां एक 17-18 साल की लड़की अपने पापा से कह रही है, पापा पी तो हमने भी है। लेकिन आपको तो कोई कंट्रोल ही नहीं है। इतना क्यों पीते हो कि खुद को कंट्रोल ही नहीं कर पाते। इस बात पर उसके पापा की दो और लड़कियां और उनकी मां हंसी ठठ्ठा कर रहे हैं। बेहद पारिवारिक सौहार्द के वो पल, जिनमें शराब किसी कुरीति का हिस्सा नहीं है … उस परिवार को देखकर लगा कि अगर दुनिया में शराब की सार्थक या निरर्थक कोई भी भूमिका है, तो शायद यही है। लगा कि किसी भी नशे का अच्छा या बुरा होना कितना ज्यादा सब्जेक्टिव है…

मैं जिस पृष्‍ठभूमि से आता हूं, वहां शराब पीना एक तरह का पाप है। शराब पीकर नाली में पड़े रहना। बाजार में सरेआम गालियां देना। अपनी पत्नियों को पीटना। अपने छोटे से कस्बे में शराबियों के ऐसे कारनामे देख-देख के बड़े होते हुए शराब जैसी चीज के लिए पैदा हुई हिकारत, दमन आकर जैसे खत्म हो जाती है। तब लगता है कि जजमेंटल होना अनुभव बटोरने के सिलसिले को कितना सीमित कर देता है। चीजों को सही या गलत के दायरे से बाहर खड़े होकर देखने का मन होता है कभी कभी। बिना किसी पूर्वाग्रह के। बिना उन्हें स्टीरियोटाइप किये…

मुंबई से लगभग दमन के बराबर दूरी पर ही एक और खूबसूरत सा समुद्री किनारा है – अलीबाग। सुबह के पांच बजे जहां पैरों को गुदगुदाती, कीचड़ से सनी, पथरीली जमीन होती है, जिस पर लगभग एक किलोमीटर चल कर आप एक किले तक पहुंचते हैं। दिन चढ़ते-चढ़ते वहां समंदर की विशाल लहरें अंगड़ाई लेने लगती हैं। गुनगुने पानी में मस्ती करते सकड़ों लोग, लोगों को सैर कराती घोड़ागाड़ियां, पैरासूट, बनाना राईड, स्टीमर और दिन ढलते वक्त दूर किसी अंतहीन कोने पे सूरज का लाल, नारंगी रंगों से सराबोर होकर दिलकश अदा से डूब जाना। शाम को लहरों को अपनी हदें पार कर किनारे की चट्टानी पत्थरों को धीरे-धीरे खुद में भिगोते और फिर पूरी तरह डुबा ले जाते देखना…

और हां, अगर सचमुच अपने देश में सबसे खूबसूरत समुद्री किनारों का जायजा लेना हो, तो अलीबाग से कुछ 30 किलोमीटर दूर काशिद और उसके बाद मुलुड जंजीरा नाम के समुद्री किनारों से बेहतर कोई और जगह क्या हो सकती है। एक शांत सी सड़क जिसके ऊपरी हिस्से में हरे-भरे पहाड़ और निचले हिस्से में गाढ़े नीले आकाश की परछाईं पड़ने से हल्का सा नीला दिखता समुद्री अनंत। आस पास बहती बिल्कुल साफ सुथरी हवा। और इस सबका लुत्फ उठाते मुंबई के आसपास से आये लोग…

मुंबई के लोग अक्सर अपने हफ्ते या महीने की थकान उतारने इन इलाकों की ओर रुख करते हैं। हर शहर अपने रवासियों को इत्‍मीनान के लम्‍हे मुहैया कराने के लिए गांवों या अपने आसपास के कस्बों पर ही तो निर्भर होता है। मुंबई को इस मामले में खुशनसीब कहा जा सकता है कि उसके इर्दगिर्द एक अथाह समुद्री इत्‍मीनान बहता है, जिसे काम से थकी हारी मुंबई की जनता को राहत पहुंचाने के लिए शायद दुनिया बनाने वाले ने सौंपा हुआ है…

पिछले कुछ दिनों से मुंबई की हवा भी कुछ सर्द सी है। सरसराती ठंड जैसे जुमले से आमतौर पर मुंबई का वास्ता बहुत कम पड़ता है। ऊनी कपड़े, जैकेट, बनियान ये सारी चीजें मुंबई के लिए आउट ऑफ डेट सी लगती हैं। एकदम गैरजरूरी। लगता है कि जैसे लोकल ट्रेन की तरह इस सरपट भागते शहर में मौसम भी लोगों को गैरजरूरी चीजों से बचने की सलाह देता हो…

घर से बहुत दूर यहां मुंबई में बैठे जब टीवी पर नैनीताल या अल्मोड़ा में बर्फ गिरने की खबर आती है, तो थोड़ा नौस्टेल्जिक फील होता है। बचपन के दिनों के वो बर्फीले मौसम क्या गजब होते थे। रात भर बिन बताये चुपचाप बर्फ गिरा करती थी और सुबह दरवाजा खोलकर बाहर देखने पर हर ओर उसके सफेद रंग की बादशाहत काबिज हो गयी लगती थी। घरों की छतों, पेड़ों, पहाड़ों, सड़कों पर दूर-दूर तक बस बर्फ ही बर्फ। जब ठंड से डरती डरती सी धूप की किरणें थोड़ा साहस कर आसमान की छत पर आती तो हम भी मम्मी के बनाये नये-नये ऊनी बनियान, दस्ताने और मफलर पहन कर अपने घर की छतों पर पहुंचते और ताजा ताजा बर्फ को जमा कर बड़ी बड़ी बर्फीली मूर्तियां बनाते। गुड़ के साथ ताजा ताजा बर्फ खाते हुए बीता वो सर्द बचपन और उन बर्फीली मूर्तियों के साथ बड़े शौक से खिंचाई तस्वीरें, मुंबई की हल्की-हल्की ठंडक का एहसास देती हवाओं के बीच बड़ी याद आती हैं…

मुंबई में जिंदगी का ये मैराथन अपनी धीमी-धीमी रफ्तार के साथ जारी है। वक्त बेवक्त इस मुंबई डायरी की अगली कड़ियां भी धीमी रफ्तार से ही सही, जारी रहेंगी…

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