Saturday, 11 February 2012 10:28 |
प्रमोद भार्गव शोषण और सुनियोजित संहार के ऐसे ही पैरोकारों का एक दल हमारे यहां भी पैदा हो गया है जिसमें योजनाकार और अर्थशास्त्री शामिल हैं। ये भूमि, जंगल और खनिजों को महज आर्थिक उत्पाद मानते हैं। इनका कहना है कि इस प्राकृतिक संपदा पर दुर्भाग्य से ऐसी छोटी और मझोली जोत के किसानों और वनवासियों का वर्चस्व है, जो अयोग्य और अक्षम हैं। सकल घरेलू उत्पाद दर में लगातार वृद्धि के लिए जरूरी है, ऐसे लोगों से खेतीयोग्य भूमि छीनी जाए और उसे विशेष व्यावसायिक हितों, शॉपिंग मॉलों और शहरीकरण के लिए अधिग्रहीत कर लिया जाए। इसी तर्ज पर जिन जंगलों और खनिज ठिकानों पर जन-जातियां आदिकाल से रहती चली आ रही हैं, उन्हें विस्थापित कर संपदा के ये अनमोल क्षेत्र औद्योगिक घरानों को उत्खनन के लिए सौंपे जा रहे हैं। इस मकसद की पूर्ति के लिए 'क्षतिपूर्ति वन्यरोपण विधेयक 2008' बिना किसी बहस-मुबाहिसे के पारित करा दिया गया था। जबकि इसके मसविदे को जनजातियों, वनों और खनिज संरक्षण की दृष्टि से गैर-जरूरी मानते हुए संसद की स्थायी समिति ने खारिज कर दिया था। लेकिन कंपनियों को सौगात देने की कड़ी में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने समिति की सिफारिश को दरकिनार कर यह विधेयक पारित करा दिया। यही कारण है कि देश में जितने भी आदिवासी बहुल इलाके हैं, उन सभी में इनकी संख्या तेजी से घट रही है।जारवा जनजातियों को भोजन का लालच देकर नचाने की घटना जहां शोषण और अमानवीयता का ही एक रूप है, वहीं इससे देश की कथित प्रगति का एक विद्रूप भी उभरता है। चंद निवालों के लालच में अगर परदेशियों के सामने अर्धनग्न जारवा महिलाएं नाच रही हैं तो विकास का ढिंढोरा पीट रहे देश के लिए यह लज्जा की बात है। क्योंकि ये भोले और मासूम जारवा नहीं जानते कि कथित रूप से सभ्य मानी जाने वाली दुनिया में नग्नता बिकती है। लेकिन इसके ठीक विपरीत जो लोग धन का लालच देकर इनकी नग्नता के दृश्य कैमरे में कैद कर करवा रहे थे, वे जरूर अच्छी तरह जानते थे कि यह नग्नता उनके व्यापारिक प्रतिष्ठान की टीआरपी बढ़ाने की सस्ती और जुगुप्सा जगाने वाली अचरज भरी वीडियो क्लीपिंग है। इसीलिए जन्मजात अवस्था में रह रहे जारवाओं की मासूमियत को बेचने की कोशिश की गई। पर यह एक क्रूर मजाक है। इसी तरह का एक मामला ओड़िशा के प्राचीन आदिवासियों को लेकर भी सामने आया है। इन्हें एक सरकारी मेले में नुमाइश की तरह पेश किया गया। हालांकि हमारे देश के सांस्कृतिक परिवेश में नग्नता कभी फूहड़ता या अश्लीलता का पर्याय नहीं रही। पाश्चात्य मूल्यों और भौतिकवादी आधुनिकता ने ही प्राकृतिक और स्वाभाविक नग्नता को दमित काम-वासना की पृष्ठभूमि में रेखांकित किया है। वरना हमारे यहां तो खजुराहो, कोणार्क और कामसूत्र जैसी रचनाधर्मिता से स्पष्ट होता है कि एक राष्ट्र के सामाजिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में हम कितनी व्यापक मानसिक दृष्टि से परिपक्व थे। लेकिन कालांतर में विदेशी आक्रांताओं के शासन और उनकी संकीर्ण कार्य-प्रणाली ने हमारे सोच को बदला और नैसर्गिक नग्नता फूहड़ सेक्स का हिस्सा बन गई। इसीलिए कहना पड़ता है कि कथित रूप से हम आधुनिक भले हो गए हों, लेकिन सभ्यता की परिधि में आना अभी बाकी है। वरना जो आदिम जातियां प्रकृति से संस्कार और आहार ग्रहण कर अपना जीवनयापन कर रही हैं, उन्हें मानव मानने के बजाय चिंपांजियों जैसे रसरंजक वन्यप्राणी मान कर नहीं चलते और न ही भोजन के चंद टुकडेÞ डाल कर उन्हें बंदर या भालुओं की तरह नाचने को बाध्य करते। अगर इसे ही मुख्यधारा की सभ्यता कहा जाता है तो अच्छा है इन्हें अपने ही दायरे में, आदिम सभ्यता में रहते हुए बख्शा जाए। प्राकृतिक परिवेश में रहने वाले इंसानों की लाचार मासूमियत को भुनाने या बेचने का यह प्रसंग आदिवासियों के प्रति हमारे नजरिए पर एक बार फिर सवालिया निशान लगाता है। |
Saturday, February 11, 2012
सभ्यता के विद्रूप
सभ्यता के विद्रूप
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment