वह एक चमकती हुई जगह थी, जिसका नाम इनफोसिस था
वह एक चमकती हुई जगह थी, जिसका नाम इनफोसिस था
आलेख : अविनाश ♦ तस्वीर : सुरभित
यह अच्छा हुआ कि बैंगलोर में हम व्हाइट फील्ड रेलवे स्टेशन पर रुके। यह स्टेशन बैंगलोर सिटी जंक्शन से 23 किलोमीटर दूर है। यहां से इनफोसिस जाते हुए हमें बैंगलोर की वो तस्वीर देखने को मिली, जो आमतौर पर दिखायी नहीं जाती। झुके हुए बिजली के खंभे, सस्ते लाइन होटल, सड़कों पर मिट्टी के बुरादे बता रहे थे कि इस शहर के चमकदार सफे के आसपास कितनी स्याही बिखरी हुई है। वर्थुर के उलझे हुए बाजार से गुजरना जरूरी था, वरना हम भी आईटी सिटी को विज्ञापन की नजरों से देख पाते।
27 दिसंबर की सुबह हमने ट्विट किया था, बैंगलोर में आईटी ही नहीं मिट्टी भी है।
इनफोसिस में जाने को लेकर जागृति यात्रा की पूरी टीम उत्साहित थी। 26 दिसंबर की रात चीयर कार में बैठक हुई। हर विभाग के लोगों को इंस्ट्रक्शन दिये गये। थोड़ी झिकझिक अरुण के साथ हुई, जिनसे कहा जा रहा था कि सुबह छह बजे सबको प्लेटफार्म पर नाश्ता करवा दिया जाए। सब जानते हैं कि अरुण यह काम बखूबी कर सकते हैं। वक्त और डाइट की क्वालिटी को लेकर वे हमेशा सजग दिखते हैं, लेकिन उनका सवाल यही था कि यह प्रैक्टिकल नहीं लगता। पर कोई विकल्प नहीं था। इनफोसिस के सुरक्षा नियमों का सख्ती से सम्मान करना था और इसके लिए सुबह सात बजे तक स्टेशन से बस खुल जानी थी।
रेवती ने ताकीद की कि यात्रियों को लगातार यह वॉर्निंग दिया जाए कि कोई इलेक्ट्रॉनिक सामान लेकर नहीं जाएगा। हम अपना लैपटॉप साथ ले जाने के जुगाड़ में थे, लेकिन इस वॉर्निंग के बाद कोई चारा नहीं था।
इनफोसिस में नारायणमूर्ति यात्रियों को इनफोसिस के सफर और संघर्ष के बारे में बताने वाले हैं, यह सबको जानकारी थी। लेकिन अनुप्रीत ने यात्रियों के अलग अलग ग्रुप्स से नारायणमूर्ति से पूछे जाने वाले सवाल लिख कर अपने-अपने टीम लीडर को सौंपने को कहा। यह इसलिए भी जरूरी था, क्योंकि जितना वक्त नारायणमूर्ति हमारे साथ बिताने वाले थे, उसमें ज्यादा से ज्यादा उपयोगी सवाल पूछे जा सकें।
धारवाड़ जाते हुए सुबह की बस में सबने अत्यांक्षरी शुरू कर दी थी, लेकिन इनफोसिस जाते हुए सब अपने अपने सवाल को डिस्कस करने में व्यस्त हो गये। मैं बस की खिड़की से बाहर वर्थुर (बैंगलोर) के नजारे देखने लगा। कन्नड़ फिल्मों के खूब सारे पोस्टर दीवारों पर चिपके थे। डॉन टू और डर्टी पिक्चर के एक भी पोस्टर नहीं थे। एक जगह प्रदूषित पानी का तेज बहाव दिखा, जो दो दो फीट का फेन बना रहा था।
बस इनफोसिस के बाहरी अहाते में खड़ी हुई, तो रोमांच और गर्व का मिलाजुला एहसास उमड़ने लगा। क्राउड मैनेजमेंट के वॉलेंटियर्स गेट के बाहर-भीतर दोनों तरफ दीवार बने खड़े थे। वे लगातार हमें बता रहे थे, नो फोटोग्राफ्स इनसाइड द इनफोसिस। गेट पर सुरक्षा के जवान चौकन्ने थे। जिनके हाथ में सिवाय मोबाइल के कुछ नहीं था, उनके लिए सीधी इंट्री थी, लेकिन जिनके पास बैग, पर्स कुछ भी था, उन्हें इलेक्ट्रॉनिक सिक्युरिटी से गुजरना पड़ रहा था।
स्वप्निल ने बताया कि यह एक तरह की फैक्ट्री है, जहां बड़े पैमाने पर प्रतिभाओं को पहली पनाह मिलती है। मैंने उनसे यूं ही सवाल किया कि तस्वीरें क्यों नहीं लेने दे रहे। स्वप्निल ने बताया कि ये देश के ऐसे कुछ ठिकानों में है, जहां आतंकवादियों की निगाहें लगातार बनी रहती हैं। अगर तस्वीरें लेने की इजाजत दे दी गयी, तो वे तस्वीरों को जोड़ कर इनफोसिस का पूरा नक्शा बना सकते हैं।
[मुझे यह उतनी सटीक बात नहीं लगती है, क्योंकि नक्शा हासिल करना बिना तस्वीरों के भी संभव है। अनुमान के आधार पर आतंकवादियों के स्केच बनाने से ज्यादा आसान है मकानों के स्केच बनाना।]
खैर, हम पैदल पैदल चल कर ऑडिटोरियम वाली बिल्डिंग तक पहुंचे। वह पहली मंजिल पर था, पर उसकी लंबाई-चौड़ाई देखते ही बनती थी। मंच का बैकड्रॉप एक डिजिटल स्क्रीन था। इतना बड़ा तो सिनेमा हॉल का स्क्रीन भी नहीं होता! मंच के ठीक सामने 873 आरामदेह कुर्सी लगी है और अपरडेक यानी बालकनी में पांच सौ लोगों के बैठने का इंतजाम है। यात्रियों का काम नीचे वाली सीट्स से ही हो जाता है।
बहरहाल, पहला सत्र नंदिनी वैद्यनाथन का था। वो हमें बताने वाली थी कि इंटरपेन्योरशिप क्या है और उसके लिए किस तरह का जुनून चाहिए होता है। नंदिनी वैद्यनाथन नये उद्यमियों को रास्ता दिखाने के लिए मशहूर हैं। वह अपने अंदाज की बेधड़क महिला हैं। उनके पूरे भाषण में 'साला' शब्द इतनी तरतीब के साथ आता रहता है कि मजा आ जाता है। उन्होंने यात्रियों को उद्यमशीलता की तीन कुंजी बतायी, ज्ञान, प्रतिभा और एटीच्यूड।
नंदिनी वैद्यनाथन अपने मेंटॉरशिप में सफलता की गारंटी नहीं देतीं, यह तब पता चलता है, जब इस बारे में एक लड़की उनसे सवाल करती है। वह कहती हैं कि मां-बाप आपकी शादी के लिए दूल्हा खोजते हैं, लेकिन ऐसा करते वक्त वह सफल दांपत्य की गारंटी देते हैं?
डेक्कन क्रॉनिकल की एक पत्रकार, प्रमिला, जो इस यात्रा में साथ चल रही हैं, नंदिनी से पूछती हैं कि महिलाओं को रसोई से जुड़े उद्योग के लिए ही अक्सर क्यों प्रेरित किया जाता है। नंदिनी के पास जवाब की जगह एक उदाहरण है, अरब की एक महिला का, जिसका पति ओसामा की सेवा में चला गया था। पति की उपेक्षा से परेशान जीने की राह खोजती उस महिला को नंदिनी ने अपने आसपास की कोई ऐसी चीज तलाशने को कहा, जिसका सबसे अधिक इस्तेमाल होता हो। आज वह महिला अरब में कुछ सौ करोड़ की एक बुर्का कंपनी की मालकिन है।
नंदिनी के साथ यात्रियों के सवाल-जवाब का ऐसा दौर चल रहा था कि राज और अनंत घबरा गये। उन्होंने नंदिनी को इशारा किया, लेकिन फिर भी बातचीत आधा घंटा ज्यादा खिंच गयी।
उसी बिल्डिंग के चौथे फ्लोर पर लंच का भव्य इंतजाम था। मैंने दो थाली ली। पहली में रोटी और बाकी के डिश और दूसरी थाली में दाल भात। एक ही थाली में सब कुछ बड़ा अजीब लग रहा था। तभी अभिनव का फोन आया कि गेट नंबर दो के पास एक नंबर बिल्डिंग में प्रेस कॉन्फ्रेंस हो रहा है, आप आ जाइए। मैंने जल्दी से लंच निपटाया और नीचे की ओर भागा। पता चला कि गेट नंबर दो बहुत दूर है। मैंने इनफोसिस के एक कर्मचारी से रास्ता पूछा, तो उसने बताया कि आप कैंपस में पड़ी कोई भी साइकिल उठा लीजिए और ऐसे-ऐसे जाइए तो जहां जाना है, वहां पहुंच जाइएगा।
यह इनफोसिस की खासियत है। कंपनी की ओर से सैकड़ों साइकिलें कैंपस में लगी रहती हैं। आप उन्हें उठा कर एक बिल्डिंग से दूसरी बिल्डिंग तक जा सकते हैं, और उन्हें वहीं छोड़ सकते हैं। बरसों बाद हमने साइकिल चलायी और प्रेस कांफ्रेंस वाली बिल्डिंग में पहुंचे। यह भी एक शानदार जगह थी। एक तरफ मंच और कई भागों में बंटा डिजिटल बैकड्रॉप, जिसमें तीन स्क्रीन नजर आ रहे थे। एक में जागृति यात्रा का बैनर था, दूसरे में इनफोसिस का और तीसरे में सवाल पूछने वाले पत्रकारों और जवाब देने वाले जागृति यात्रा के संचालकों का वीडियो आ रहा था।
यहां का मामला खत्म करके हम ऑडिटोरियम तक आये, तो फर्स्ट फ्लोर पर ही एक पारदर्शी कमरे में नारायणमूर्ति अनुप्रीत और राज से डिस्कस करते हुए दिखे। स्वप्निल ने बताया कि वे बातचीत के फॉर्मेट पर डिस्कस कर रहे हैं।
मेरे सामने एक ऐसी जीवित मूर्ति थी, जिसने इनफोसिस जैसी एक ऐसी कंपनी खड़ी की, जिसकी यात्रा दस हजार रुपये से शुरू होती है और 25 हजार करोड़ तक पहुंचती है… [मार्च 2011 में सेल्स टर्नओवर, 25,385 करोड़ रुपये]। कर्मचारियों के साथ न्याय की तमाम मर्यादाओं का पालन करते हुए इस कंपनी का यह सफर नब्बे के दशक में पूरे देश के लिए एक उदाहरण बना। हर अखबार में इनफोसिस की कहानी थी और कंप्यूटर से जुड़े हर युवा की हसरत कि इनफोसिस में उसे नौकरी मिल जाए।
नारायणमूर्ति जब ऑडिटोरियम में आये, तो सारे यात्री पूरे जोशोखरोश के साथ उनके स्वागत में खड़े हो गये। तालियों की गड़गड़ाहट से हॉल कुछ देर तक गूंजता रहा।
मंच पर नारायणमूर्ति के साथ राजकृष्णमूर्ति थे और शुरुआत इनफोसिस के एंथम से होनी थी। लेकिन मिनट भर की देर हो गयी, तो नारायणमूर्ति डायस पर आये और अपनी बात रखनी शुरू कर दी। वे पूरे समय सौम्य बने रहे। उन्होंने गरीबी को मौजूदा भारत की अहम चुनौती बताया, हालांकि यह कोई अनोखी और मौलिक बात नहीं थी। लेकिन इसका समाधान उन्होंने उद्यमिता में तलाशने की बात की। उन्होंने कहा कि उद्यमिता से नौकरी की मुश्किल दूर हो सकती है और इससे शिक्षा का स्तर भी बढ़ता है।
एक यात्री ने नारायणमूर्ति से देश में भ्रष्टाचार और अन्ना के आंदोलन के बारे में सवाल पूछा और एक कॉरपोरेट लीडर होने के नाते उनको जवाब देने का आग्रह किया। उन्होंने कहा कि भ्रष्टाचार से लड़ाई एक कॉरपोरेट लीडर की ही नहीं, हर नागरिक की जिम्मेदारी है। उन्होंने यह भी कहा कि निजी क्षेत्र में भी भ्रष्टाचार खतरनाक है, लेकिन यहां का भ्रष्टाचार शेयरहोल्डर्स पकड़ लेते हैं। और अक्सर कंपनी बंद होने की हालत में पहुंच जाती है।
भ्रष्टाचार सामने आने की स्थिति में नारायणमूर्ति ने अपनी कंपनी के नियम बताये। कहा कि इनफोसिस में गड़बड़ी सामने आने पर संबंधित कर्मचारी शाम पांच बजे से पहले कंपनी से बाहर होता है।
एक सवाल के जवाब में उन्होंने गांव को विकास की मुख्यधारा से जोड़ने की बात की और महिलाओं को भी देश की अर्थव्यवस्था से जोड़ने की बात की।
नारायणमूर्ति से सवाल करती हुई एक यात्री
इस बीच इनफोसिस का एंथम भी हमने सुना और उसका वीडियो भी देखा। वीडियो में इनफोसिस के देश और दुनिया में फैले साम्राज्य की कहानी थी। इस साम्राज्य को देखने के बाद एक भौंचक यात्री ने सवाल किया कि हममें से कोई अगर उद्यमिता की ओर कदम रखना चाहे, तो आप उसकी क्या मदद कर सकते हैं। नारायणमूर्ति ने सार्वजनिक रूप से अपना निजी ईमेल सबको देते हुए उनसे आइडिया मेल करने को कहा और कहा कि कोई आइडिया उन्हें और उनकी टीम को पसंद आता है, तो वे जरूर उसमें धन इनवेस्ट करना चाहेंगे।
पूरा ऑडिटोरियम कृतज्ञ भाव से तालियां बजाने लगा। इन्हीं तालियों के बीच से सबको धन्यवाद की निगाहों से देखते हुए नारायणमूर्ति विदा हो गये।
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