घामतपवे भाबर से साइबर युग में फटक मारता हल्द्वानी . 6
लेखक : आनन्द बल्लभ उप्रेती :: अंक: 12 || 01 फरवरी से 14 फरवरी 2012:: वर्ष :: 35 :February 19, 2012 पर प्रकाशित
खुशीराम शिल्पकार और भूमित्र आर्य को दलितों के उत्थान के लिए सदैव याद किया जाता रहेगा। 1886 में हल्द्वानी के निकटवर्ती गाँव में जन्मे खुशीराम ने जब 1894 में मिशन स्कूल हल्द्वानी में प्रवेश लिया तो उन्हें सवर्ण छात्रों द्वारा अपमानित किया गया। 1906 में दलितों को 'शिल्पकार' नाम देने का उन्होंने प्रयास किया और 1921 की जनगणना में उन्हें शिल्पकार लिखा गया। गोविन्द वल्लभ पन्त और बद्रीदत्त पांडे ने उन्हें राष्ट्रीय राजनीति व आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी के लिए सहयोगी बनाया। वे 1946 से 1967 तक उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्य रहे। बाद में उनके पुत्र इन्द्रलाल हल्द्वानी विधानसभा क्षेत्र से विधायक रहे। 1901 में भवाली में, लोहार परिवार में जन्मे भूमित्र आर्य दलितों के उत्थान में जीवनपर्यन्त संघर्षरत रहे। ब्रिटिश हुकूमत में सरकारी सेवा में रहने के बावजूद आजादी की लड़ाई में सक्रिय रहने पर पुलिस की मार सहनी पड़ी। गुरुकुल कांगड़ी, हरिद्वार के स्नातक और सिद्धांत विशारद भूमित्र आर्य ने कुमाऊँ में ईसाई बने दलितों को पुनः हिन्दू धर्म में लाकर कुरीतियों के उन्मूलन का संकल्प लिया। भवाली में उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की। बाद में वे हल्द्वानी हीरानगर में निवास करने लगे।
हल्द्वानी की राजनीति का जिक्र आने पर डॉ. इन्दिरा हृदयेश का उल्लेख अनिवार्य हो जाता है, जो एक साधारण पृष्ठभूमि से आने के बावजूद असाधारण हो गयीं। उन दिनों मैं उनके बारे में इतना ही जानता था कि वे ललित महिला इंटर कालेज में प्रधानाचार्या हैं। एक अनोखी घटना के बाद ज्यादा जानने लगा। वह 13 अक्टूबर 1968 का दिन था। पद्मदत्त पन्त जी व मैं रोज की तरह प्रेस बन्द कर सायं 8 बजे जगदम्बा नगर अपने आवास की ओर जा रहे थे। एसडीएम कोर्ट के सामने मित्र भवन के पास शामियाना लगा देखा। सड़क पर पहचान के कई लोग मिले और हँसी-ठिठोली शुरू हो गई। 21 अक्टूबर के 'संदेश सागर' में मेरा बनाया एक छोटा सा समाचार छपा- ''एक बहुचर्चित विवाह के उपलक्ष्य में दी गई चाय-पार्टी में मालूम हुआ कि आमंत्रित लोग लड्डू खाने के लिए समय से एक घंटा पहले ही पहुँच गये। चाय-पानी डकारने के बाद बाहर आते हुए हर-एक को यह कहते हुए सुना गया कि इस घोर कलयुग में अब भाई-बहन की भी शादी होने लगी है। कैसा जमाना आया है?'' इसके कुछ ही दिन बाद अशरफ निगार नामक एक व्यक्ति ने 'वारंट' नाम से एक उर्दू का समाचार पत्र शाया किया, जिसमें इंदिरा हृदयेश, तत्कालीन एसडीएम जैन व कृष्णा कत्था फैक्ट्री के मालिक सतीश कुमार गुप्ता के सम्बंध में निहायत अशोभनीय बातें छापी गयी थीं। इस अंक के छपने के दो-तीन दिन बाद ही अशरफ निगार को मित्र भवन में ब्लैकमेलिंग के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। बताया गया कि भविष्य में कुछ न छापने के लिए वह एक हजार रुपया माँगने वहाँ पहुँचा था।
मगर बहुत सारे लोगों का मानना था कि अशरफ को साजिशन फँसाया गया है। उन लोगों में से एक थे, नगरपालिका के युवा सदस्य और दबंग अधिवक्ता सुरेन्द्र सिंह रावत। वे उस शाम जगदम्बा प्रेस में आए। कुछ नशे में थे। उन्होंने इशारे से मुझे बाहर बुलाया और हाथ पकड़ कर एक रिक्शा, जिसमें लाउडस्पीकर लगा हुआ था, में बैठा लिया। लाइब्रेरी के सामने एसडीएम आवास के सामने रिक्शा रोक कर माईक पर एसडीएम के खिलाफ, कहनी-न कहनी, बहुत कुछ बोल गए और जाते-जाते चुनौती फेंक गए कि हिम्मत हो तो उनका मुकाबला करे। इसके बाद रिक्शा मित्र भवन के सामने रुका और वे इन्दिरा जी के खिलाफ बोलना शुरू हो गये। तब हल्द्वानी में आज जैसी भीड़ नहीं थी। फिर भी काफी लोग तमाशा देखने की गरज से वहाँ जुट गए। मैं इस अप्रत्याशित घटना से हतप्रभ, सिमटा हुआ रिक्शे पर बैठा था। अगले दिन जैन साहब ने मुझे बताया कि नगर से बाहर होने के चलते उन्हें अशरफ निगार की गिरफ्तारी की सूचना नहीं थी।
स्वाभाविक है कि इस तरह की घटना से इन्दिरा जी विचलित हुई होंगी। उन्होंने मुझे अपने आवास पर आमंत्रित किया। मेरे शुभचिन्तक शंकित हो गये कि हो न हो, अब 'अन्दर जाने' की बारी मेरी है। बहरहाल मैं उनके आवास पर गया। मेरे वहाँ पहुँचने वक्त वहाँ उर्दू के कुछ पत्रकार बैठे हुए थे। उनके रुखसत होने के बाद कमरे में इन्दिरा जी, हृदयेश जी, इन्दिरा जी की छोटी बहन श्यामा और मैं रह गये। इन्दिरा जी ने अशरफ निगार की असली मंशा का खुलासा किया और रावत जी के व्यवहार पर अफसोस जाहिर किया। वे हैरान थीं कि बिना असलियत जाने रावत जी जैसे भले और ईमानदार आदमी ऐसा क्यों कर गये होंगे! तब मैं अपने असली सवाल पर आया। मैंने पूछा कि नगर में यह भाई-बहन की शादी होने का शोर क्यों मचा है ? इस प्रश्न का जो उत्तर उन्होंने दिया, उससे मेरे लिये भविष्य में एक सकारात्मक सोच का द्वार खुल गया। उन्होंने कहा कि कोई भी लड़की अपने समवयस्क लड़के को 'भाई साहब' कह कर ही तो सम्बोधित करती है और लड़का भी 'बहन जी' ही कहता है। है कि नहीं ? ऐसा ही मेरे और हृदयेश जी के बीच था। अब हमने शादी कर ली है और हम पति-पत्नी हैं। उन्होंने बताया कि वे मूलतः दसौली (जिला अल्मोड़ा) की रहने वाली स्व. टीकाराम पाठक की पुत्री हैं और हृदयेश शर्मा सेहौरा (बिजनौर) के रहने वाले हैं। हम पहले पीलीभीत रहते थे। हृदयेश जी भी वहीं सर्विस में थे और हमसे परिचित थे। मैं अपनी माँ व बहन के साथ 1962 में हल्द्वानी आ गई। जब हृदयेश जी भी यहीं आ गए तो मुलाकातें होती रहीं और फिर हमने शादी करने का निर्णय किया।
एक महिला होने का खामियाजा उन्हें पग-पग पर झेलना पड़ा। मगर तमाम झंझावातों को झेलते हुए उन्होंने समाज व राजनीति में अपना स्थान बनाया। यही उनके असाधारण होने की कहानी है। 1970 से वे राजनीति में आयीं और 1974 से सन् 2000 तक उत्तर प्रदेश विधान परिषद में गढ़वाल-कुमाऊँ (शिक्षक सीट) से सदस्य रहीं। उत्तराखंड राज्य बनने के बाद वे 2002 से 2007 तक कैबिनेट मंत्री रहीं। जहाँ तक राजनीति में ईमानदारी और बेईमानी का सवाल है, वह तो सर्वव्यापी है और इसे केवल एक महिला के ही पल्लू में बाँधना उचित नहीं होगा। हल्द्वानी में एक अच्छा होटल बनाने का विचार भी सबसे पहले इन्दिरा हृदयेश को ही आया और उन्होंने 'सौरभ होटल' नाम से नैनीताल रोड पर एक शानदार होटल बनवाया।
पृथक पर्वतीय राज्य की माँग लम्बे समय से चले आने और छिटपुट आन्दोलन होते रहने के बाद जब अन्ततः 24-25 जुलाई 1979 को मसूरी में 'उत्तराखंड क्रांति दल' का जन्म हुआ तो उसके बाद 9 सितम्बर 1979 को रामपुर रोड स्थित हिन्दू धर्मशाला में उक्रांद की केन्द्रीय समिति की बैठक बड़े उत्साह के माहौल में हुई। बैठक में अल्मोड़ा-पिथौरागढ़ संसदीय सीट से पार्टी के अध्यक्ष डॉ. डी. डी. पन्त व नैनीताल-बहेड़ी सीट पर कल्लू खाँ को चुनाव मैदान में उतारने का निर्णय किया गया। किन्तु इस दल का एक राजनैतिक ढाँचा प्रारम्भ से ही तैयार नहीं हो सका। जिलाधिकारी कार्यालय के सामने चर्च कम्पाउंड, जहाँ पर इन दिनों एक बड़ी बिल्डिंग खड़ी हो गई है, की खाली पड़ी भूमि पर नित्यानन्द भट्ट ने लकड़ी का एक शैड बनवा कर अपना छापाखाना शुरू किया। उसी में उन्होंने 'केन्द्रीय सचिवालय, उत्तराखंड क्रांति दल' का बोर्ड लगा कर गतिविधियाँ शुरू कीं। कुछ समय तक ललित किशोर पांडे ईमानदारी से हिसाब-किताब रखते रहे। डॉ. पन्त के चुनाव हारने के बाद निष्क्रियता छा गई। सहायता राशि, सदस्यता आदि से प्राप्त आय आदि का क्या हुआ, पता नहीं। नित्यानन्द भट्ट व्यवस्था अपने हाथ में रखना चाहते थे। वे एक बार हल्द्वानी विधान सभा सीट से चुनाव भी लड़े। उस शुरूआती अराजकता के कारण ही राज्य गठन के बाद भी उत्तराखंड क्रांति दल वह हैसियत नहीं पा सका।
बसपा का क्षेत्र की राजनीति में और इस पार्टी में विधायक के रूप में नारायण पाल के प्रवेश के पीछे कोई राजनैतिक सिद्धान्तों का आधार नहीं है, वरन् यह भी वर्तमान राजनीति की दौड़ का ही एक प्रयोग है। वर्तमान राजनीति की लागलपेट में कोई व्यक्ति ईमानदारी से सफलता हासिल नहीं कर सकता, किन्तु इस लागलपेट को अंगीकार करते हुए हिम्मत, लगन और संगठन शक्ति के बल पर निश्चित रूप से साधारण से असाधारण हो सकता है। नारायण पाल पहले कांग्रेस के कार्यकर्ता थे और नारायणदत्त तिवारी के बहुत निकट थे। महत्वाकांक्षा उन्हें बसपा की राजनीति में ले आयी और वे खटीमा सुरक्षित सीट से विधायक चुन लिए गए। अब वे उत्तराखंड में तेजी से उभरती हुई बहुजन समाज पार्टी के खेवनहार बने हुए हैं। उसी बुद्धि, साहस और लगन का परिणाम है कि आज उनका पूरा परिवार उन्नति के शिखर पर है। पाल स्टोन इंडस्ट्रीज लि., बृजलाल हॉस्पिटल एण्ड रिसर्च सेंटर, पाल कालेज ऑफ टैक्नालॉजी एण्ड मैनेजमेंट, पाल बिल्ड कोन्स लिमिटेड, पाल प्रतीक मोटर्स डीलर, पाल कालेज ऑफ नर्सिंग एण्ड साइंसेज जैसे कई व्यावसायिक प्रतिष्ठान यह परिवार संचालित कर रहा है।
मेरा पाल परिवार के साथ परिचय मोहन पाल से शुरू हुआ। मोहन पाल एक कांग्रेसी कार्यकर्ता के रूप में मुझसे एक भाषण लिखवाना चाहते थे और जाहिर है वह भाषण कांग्रेस की तारीफ में लिखा जाना था। पहले तो मैंने किसी पार्टी की उपलब्धियों पर लिखने से मना कर दिया, किन्तु फिर एक विद्यार्थी को निराश न करना चाह कर भाषण तैयार कर दिया। बहरहाल, वर्तमान में कारोबारों के साथ-साथ चलने वाली राजनीति मोहन पाल को कुछ समय के लिए भारतीय जनता पार्टी की ओर खींच ले गई, किन्तु यहाँ भी वर्चस्व की होड़ उन्हें जगह नहीं दे पायी और महत्वाकांक्षा उन्हें बसपा में शामिल कर गई।
पाल परिवार के पुरखे मुजफ्फरनगर की कराना तहसील (अब जिला) से आ कर हल्द्वानी में बसे थे। इन्हें गड़रिया कहा जाता था। लाइन नंबर एक में उनके रिवाड़े अर्थात् बकरियों को एकत्रित कर रखने के बाड़े थे। अंग्रेजी शासन काल में इनके प्रमाण पत्रों में भी 'हिन्दू बूचड़' लिखा गया है। लाइन नं. एक में रहने वाले बुजुर्ग जगदीश प्रसाद के पास सुरक्षित अनेक दस्तावेज पुरानी हल्द्वानी और पाल परिवार की वंश परम्परा बताते हैं। जगदीश जी के अनुसार जाटबहुल कराना से 1830 के आसपास इनके परदादा मान सिंह हल्द्वानी आए। अंग्रेज अपनी आवश्यकतानुसार विभिन्न पेशों के लोगों को भी साथ ले जाते थे। वे मांसाहारी लोग थे और उन्हें और उनके सैनिकों के लिए मीट की जरूरत थी। तब पहाड़ों में मीट खाल निकाल कर नहीं भड़्या (भून) कर खाने का चलन था। अंग्रेजों के जमाने में ही पाल परिवार के बलराम नैनीताल छावनी में कांट्रेक्टर थे। सब्जी, मीट सप्लाई का इनका कार्य था, जिसकी बाकायदा रसीद मिलती थी। पाल खानदान के एक प्रसिद्ध व्यक्ति ही वंशी चौधरी सामाजिक विवादों को सुलझाने के अलावा मुकदमे लड़ा करते थे। सुल्ताना डाकू के मुकदमे में उनकी राय ली गई थी। जगदीश प्रसाद बताते हैं कि 7-8 वर्ष की उम्र में वे भी वंशी जी के साथ नैनीताल सेशन कोर्ट गये। इस खानदान के छोटेलाल हल्द्वानी टाउन एरिया के सदस्य रहे। जगदीश प्रसाद के भाई नंद किशोर सी. आर. एस. टी., नैनीताल में पढ़ कर सन् 1995 में गदरपुर ब्लाक में ए. डी. ओ. पद से सेवानिवृत्त हुए।
जगदीश जी बताते हैं कि यहाँ के घने जंगल में अक्सर भटक जाने, खो जाने के कारण उनके दादा-परदादा लोगों ने इस इलाके का नाम 'बनभूलपुरा' रख दिया था। एक विशाल पाकड़ के पेड़ पर भूमिया मंदिर स्थापित कर दिया। वर्तमान में इस जगह पेड़ नहीं हैं। पाल परिवार ने पुराने भूमिया मंदिर का जीर्णोद्धार कराया। आज भी लाइन नम्बर 1 में इनके आवास से लगे भूमिया मंदिर में पूरा परिवार एकत्रित होता है, विवाह के बाद जोड़ा आशीर्वाद लेने आता है। इस क्षेत्र में पाल परिवार की काफी सम्पदा है। इस परिवार के बलराम जी की ओर से हल्द्वानी के राम मंदिर और मस्जिद के लिए भूमि भी दान में दी गई थी। जगदीश प्रसाद को दुःख है कि दाननामे की अकूत सम्पदा पर आज कब्जा हो चुका है। पीढि़यों से रहने वाले आज तक नजूल भूमि पर माने जाते हैं, जबकि अराजक तत्वों ने सुन्दर शहर का नक्शा ही बिगाड़ दिया है। हल्द्वानी के मुख्य बाजार में अब बनिया व अन्य लोग हैं, तब हल्दूचौड़ के बमेठा लोगों के परिवार थे। ताज चौराहे पर बगड्वाल परिवार का मकान था। हल्द्वानी एक पड़ाव मात्र था। जाड़ों में जंगलियागाँव, भीमताल, महरागाँव, नैनीताल के लोग बैलगाडि़यों में यहाँ आया करते थे। वे कहते हैं कि पहले इस जंगल में जमीन को कोई नहीं पूछता था। गौला क्षेत्र में अफगानिस्तान के पठान-खान लोग पत्थर तोड़ने का काम किया करते थे। आज वही पठान मुस्लिमों में मिश्रित हो गये हैं। तब घास-फूस की कच्ची बस्ती बनभूलपूरा में थी, जो कई बार आग से उजड़ी। इसे मढ़ैया कहते थे। मुस्लिमबहुल क्षेत्र होने के बाद, काफी बाद में लाईन न. 6 को आजाद नगर कहा जाने लगा।
एक समय था, जब कांग्रेस को पछाड़ने वाला कोई नहीं था। जनसंघ और कम्युनिस्ट पार्टी मात्र उपस्थिति भर को थे, किन्तु समाजवादी पार्टी की पकड़ काफी मजबूत थी। तब डॉ. राम मनोहर लोहिया और आचार्य नरेन्द्र देव के विचारों से प्रभावित जुझारू लोगों की यहाँ कमी नहीं थी। तराई के शेर कहे जाने वाले जगन्नाथ मिश्रा, नारायण दत्त तिवारी, प्रताप भैया, रामदत्त जोशी, नन्दन सिंह बिष्ट, बसन्ती बिष्ट, जसवन्त सिंह बिष्ट जैसे कई लोग इस दल की बागडोर सभाले हुए थे। समाजवादी भी प्रजा समाजवादी पार्टी और संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी, दो खेमों में बँटे थे। बावजूद इसके, इस क्षेत्र में इस दल ने कांग्रेस को बेखौफ होने से रोके रखा। 1952 में नारायण दत्त तिवारी ने श्याम लाल वर्मा जैसे दिग्गज को हरा दिया, वहीं तिवारी के कांग्रेस का हाथ थाम लेने के बाद स्वतंत्रता सेनानी, पत्रकार और निर्भीक ट्रेड यूनियन लीडर रामदत्त जोशी ने उन्हें 1967 में काशीपुर में पटखनी दी। अटल सिद्धान्तवादी रामदत्त जोशी ने विधायकों के वेतन-भत्ते बढ़ाये जाने का विधानसभा में कड़ा विरोध किया और और अन्ततः इस मुद्दे पर विधानसभा से ही त्यागपत्र दिया। लेकिन समाजवादी पार्टी के भीतर नारायण दत्त तिवारी आदि कुछ लोगों का विचार बना कि मात्र कुछ सीटें पा लेने के बावजूद भी वे न तो सत्ता तक पहुँच सकते हैं और न समाजवादी सिद्धान्तों को प्रतिष्ठित कर सकते हैं, इसलिए कांग्रेस के भीतर घुस कर ही तोड़फोड़ की जाए। पं. गोविन्द वल्लभ पन्त जैसे कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेता भी तिवारी जी की काबिलियत को देख कर उन्हें कांग्रेस में लाना चाहते थे। धीरे-धीरे समाजवादी पार्टी का इस क्षेत्र में ही नहीं, समूचे उत्तर प्रदेश में आधार समाप्त हो गया। सालों बाद एक बार फिर मुलायम सिंह यादव के सत्ता में काबिज होने से समाजवादियों को उम्मीद जगी, किन्तु मुलायम उनकी अपेक्षाओं पर खरे नहीं उतरे। बहरहाल इस उथलपुथल में कई नये लोग इस मुलायमी समाजवाद से जुड़े और बहुत से पुराने लोग अलग भी हो गए। इसी दौर में हल्द्वानी में अब्दुल रऊफ सिद्दीकी नामक युवा ने कई लोगों को जोड़ कर समाजवादी पार्टी की स्थिति मजबूत बनाने का प्रयास किया। मिलनसार स्वभाव के अब्दुल रऊफ का व्यक्तिगत तौर पर व्यवहार इतना मधुर था कि कभी किसी राजनैतिक पार्टी से सम्बन्ध न रखने के बावजूद मैं एक बार अन्य अनेक लोगों के साथ उन्हें पार्टी की ओर से टिकट दिए जाने की सिफारिश के लिए लखनऊ जाकर रामशरण दास से मिलने के लिए मजबूर हो गया, यद्यपि इस सिफारिश का कोई अर्थ नहीं था। संसदीय चुनाव में एक बार उन्होंने नारायण दत्त तिवारी तक को भारी टक्कर तक दे डाली। किन्तु आपसी रंजिश के चलते रऊफ की हत्या हो गई। अब उनके भाई अब्दुल मतीन सिद्दीकी ने इस मुलायमी समाजवाद की बागडोर संभाल रखी है।
(जारी है)
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