ई.वी.एम. में बन्द गणतंत्र
लेखक : राजीव लोचन साह :: अंक: 12 || 01 फरवरी से 14 फरवरी 2012:: वर्ष :: 35 :February 16, 2012 पर प्रकाशित
http://www.nainitalsamachar.in/so-finally-noise-of-election-gets-over-2012/
ई.वी.एम. में बन्द गणतंत्र
लेखक : राजीव लोचन साह :: अंक: 12 || 01 फरवरी से 14 फरवरी 2012:: वर्ष :: 35 :February 16, 2012 पर प्रकाशित
हमारी श्रीमती जी चैनल सर्फिंग में व्यस्त थीं कि जरा देखें हमारे प्रदेश में गणतंत्र दिवस की परेड कैसी रही। मगर दर्जनों स्थानीय कहे जाने वाले चैनलों में किसी को इतनी फुर्सत नहीं थी कि जरा सी देर के लिये गणतंत्र दिवस पर कैमरा तान लेते। सब तो चुनावों में सराबोर थे।
मगर अब चुनाव समापन की ओर हैं। यह अंक सुधी पाठकों तक पहुँचे, तब तक सारा मेला उजड़ चुका होगा…..
बड़ी रौनक रही। शराब तो बहती ही है चुनाव में खूब। अब तो गाँवों में औरतें गाली देती हैं, क्यों आ मरे होंगे ये चुनाव हमारे मर्दों को बर्बाद करने! मगर चुनाव में बहुत सारे लोगों को रोजगार मिला। सारा मनरेगा फेल हो गया। सौ रुपये रोज में पसीना बहाओ, उसमें भी भुगतान कब मिलेगा पता नहीं। यहाँ दो से तीन सौ रुपये की दिहाड़ी मिल रही थी और वह भी नकद। कई बार तो साथ में खाने का पैकेट भी। जॉब कार्ड की कोई मजबूरी नहीं। काम कुछ नहीं, सिर्फ घर-घर घूम आओ, प्रचार कर आओ…..अलाने को वोट दे देना या फलाने को वोट देना। न भी करो तो कौन देखने वाला था ? उधर जनता के लिये सुविधायें भी एकाएक बढ़ गईं। रोजाना काम के लिये जीपों में 10-15 किमी की यात्रा करने वालों को मालूम पड़ा कि अब मतदान के दिन तक उसी रोज के रास्ते पर उन्हें किराया नहीं देना पड़ेगा। उनके लिये जीपें लगा दी गई हैं। जिन कच्ची सड़कों पर नियमित रूप से जीपें नहीं चलती थीं, उनमें भी यात्रियों की सुविधा के लिये चलने लगीं….. एकदम मुफ्त! सिर्फ एक इशारा भर कि वोट फलाँ उम्मीदवार को देना है। कई लोग तो मना रहे हैं कि ऐसे ही बार-बार चुनाव होते रहें तो अगली बार अस्थायी अस्पताल भी खुल जायेंगे! दवाइयाँ मुफ्त मिलने लगेंगी। क्या पता बच्चों के लिये स्कूल या कोचिंग सेंटर भी खुलने लगें।
यह सब प्रशासन की नजर से भी ओझल। उसे नोट पकड़ने का निर्देश मिला था, सो वह नोटों की गड्डियों की फिराक में लगा था। उसे क्या मालूम कि नोट तो सब इसी तरह बिला जा रहे हैं। फिर उसे गरज क्या पड़ी थी कि वह प्रचार करने वाले इन आदमी/औरतों से पूछता कि क्या स्वैच्छिक रूप से काम कर रहे हो या दिहाड़ी पर और अगर पैसे ले रहे हो तो कितना और किस उम्मीदवार से ? या जीप वालों से पूछता कि भई यह 'शटल सेवा' किसके कहने पर चला रहे हो, कौन इसका भुगतान करेगा ? पूछता तो उसे मालूम पड़ जाता कि दसियों लाख रुपये तो इस तरह से खर्च कर रहा है कोई उम्मीदवार, 11 लाख रु. की सीमा कहाँ रही ?
और मीडिया ? ….हमारे बड़े भाई साहब कई अखबार पढ़ने, रेडियो पर बीबीसी सुनने और ज्यादा से ज्यादा न्यूज चैनल देखने के शौकीन हैं। पढ़-सुन कर डट कर चर्चा भी करते हैं। इस बार अभी तक असमंजस में हैं कि किसे वोट दें। ये तो सारे उम्मीदवार चोर लगते हैं, हरेक पार्टी दूसरी पार्टी को बेईमान बता रही है! हमने उन्हें समझाया कि अखबार मत पढ़ो, अपनी बुद्धि पर भरोसा रखो। अखबार तो आजकल सारे के सारे पैकेज पर चल रहे हैं। बीस हजार करोड़ रुपये के काले धन में से अपना हिस्सा छील रहे हैं। बीस हजार करोड़….उनकी बुद्धि चक्कर खा गई। वे कुछ नहीं समझ पाये। तब हमने उन्हें समझाया कि अर्थशास्त्रियों ने अनुमान लगाया है कि पाँच राज्यों में होने वाले इन विधानसभा चुनावों में करीब बीस हजार करोड़ रुपये का काला धन खपेगा। अखबार उसमें से ज्यादा से ज्यादा वसूल करने के चक्कर में हैं। पिछले लोकसभा चुनाव में पैसे लेकर किसी खास उम्मीदवार के पक्ष में खबरें छाप रहे थे। इसे 'पेड न्यूज' कहा गया। कुछ मामले पकड़े गये। हालाँकि जाँच होने के बावजूद किसी अखबार का कुछ बिगड़ा नहीं। अखबारों से कौन पंगा लेता है ? इस बार वही सारे अखबार सावधानी बरत रहे हैं। 'पैकेज' बेच रहे हैं। पैकेज का मतलब कि इतना रुपया दोगे तो इतने दिन तक रोजाना इतना बड़ा विज्ञापन लगेगा और इतनी बड़ी खबर कि आज यहाँ मतदाताओं से सम्पर्क किया, कल वहाँ। जितना गुड़ डालोगे, उतना मीठा होगा। बड़े पैकेज में विज्ञापन बड़ा होगा तो खबरें भी बड़ी होंगी और बाकायदा फोटो के साथ लगेंगी…..रोड शो आदि का भी जिक्र होगा। इस पैकेज को उम्मीदवार के हिसाब में नहीं जोड़ा जा सकता, क्योंकि रसीद तो सिर्फ विज्ञापन की मिलनी हैं। जैसे कि सबसे ज्यादा बिकने वाले अखबार का सबसे छोटा पैकेज एक लाख अस्सी हजार रुपये का है। रसीद सिर्फ चालीस हजार रुपये की मिलेगी। बाकी एक लाख चालीस हजार रुपया काले धन का खपा। और सत्तर विधान सभा क्षेत्रों में कुल उम्मीदवार कितने हैं ? कुल 788। उनमें से एक चौथाई ने भी पैकेज लिये तो कुल कितना काला धन खपा….हिसाब लगा लो। फिर चुनाव जीतने की कोशिश करनी है तो सिर्फ एक अखबार को पैकेज देने से तो काम चलेगा नहीं, सभी को देना पड़ेगा। जिसे नहीं दिया जायेगा, वह उल्टी-सीधी खबरें छाप कर मट्टीपलीद कर देगा। इसीलिये देख रहे होगे कि बड़ी राजनैतिक पार्टियों की या पैसे वाले उम्मीदवारों की खबरें खूब छप रही हैं। छोटी पार्टियों के या निर्दलीय उम्मीदवारों की छोटी-छोटी खबरें कहीं ओने-कोन में सकुचायी सी छिपी पड़ी हैं…..उन्हें ढूँढना पड़ रहा है। उधर चैनलों में मार 'खंडूरी हैं जरूरी' और 'हम होंगे कामयाब' जैसे विज्ञापन सुन-सुन कर कान पक गये हैं। चैनलों में तो समझ लो कि जो खबर भी है, उसके डट कर पैसे लिये गये हैं। आज एक चैनल चुनाव पूर्व सर्वे में कांग्रेस को 39 और भाजपा को 29 सीटें दे रहा है तो कल दूसरा उसे उलट कर कांग्रेस को 29 और भाजपा को 39 सीटें पकड़ा दे रहा है….. जहाँ से ऊँची बोली मिल गई। इतना बड़ा खेल है। इसीलिये तो हमारे जैसा आदमी विधानसभा का छोड़ो, म्युनिसपैलिटी की वार्ड मेंबरी का चुनाव भी नहीं लड़ता….
…..भाई साहब हक्के-बक्के होकर सुन रहे थे। हमने उन्हें एक बहुत मरियल सा दैनिक अखबार दिखा कर पूछा, क्या इस अखबार में इतने विज्ञापन पहले कभी छपे देखे थे ? जब से चुनाव घोषित हुए सारे अखबार तीन-तीन, चार-चार पेज की सामग्री चुनाव को लेकर छाप रहे हैं। आज से बीस साल पहले तक होता था ऐसा ? आप भले ही अपने को जागरूक समझते होंगे। एक सामान्य मतदाता को तो कोई रुचि ही नहीं है चुनाव में। मगर बाजार है। अगर बाजार में गला फाड़ फाड़ कर 'सेल-सेल-सेल', 'सस्ता कर दिया, सस्ता कर दिया', 'दो लेने पर एक फ्री' चिल्लाने वाले नहीं होंगे तो ग्राहक क्यों फटकेगा बाजार में ? यही काम अखबार वाले कर रहे हैं। शोर मचा-मचा कर बाजार में गहमागहमी दिखा रहे हैं। ताकि मतदाता आये, और ज्यादा से ज्यादा आये। चुनाव का बाजार चलता रहे। वोट की बिक्री होती रहे। क्या कहीं वास्तविक मुद्दे हैं ? अखबारों का काम सही राय देना भी होता है। मगर यहाँ तो सभी को एक ही तराजू पर तौला जा रहा है। कहीं यह नहीं कहा जा रहा है कि आज यदि उत्तराखंड बर्बाद हो रहा है तो इन-इन के कारण हो रहा है। कैसे कहेंगे ? ये बर्बाद करने वाले तो अखबार वालों के माई बाप हैं। कुछ उम्मीदवार जो खरी-खरी कह रहे होंगे, उनकी खबरें ढूँढे से नहीं मिलेंगी। उनके पास पैकेज के ही पैसे नहीं होंगे। मजेदार बात कि यही अखबार कभी अण्णा हजारे और बाबा रामदेव की बातें भी उतनी ही गंभीरता से छापते हैं…..मानो असली शुभचिन्तक हों लोकतंत्र के! अखबारों में जो ईमानदार संवाददाता हैं, वे हमारे सामने रोते हैं…..भाई साहब आप ही कुछ साफ-सच्ची बातें लिखें…..हमारी कलम तो बिक गई है….अखबार में आये हैं तो यह तो करना ही पड़ेगा….बच्चे तो पालने ही हैं…..
उस रोज विधानसभा के एक उम्मीदवार आये। आये थे वोट माँगने, अपना रोना रोने बैठ गये कि भाई साहब सोचा था कि जिन्दगी भर जनता के लिये इतना खटा हूँ तो अब चुनाव भी लड़ना चाहिये। शायद विधानसभा में जाकर कुछ और कर पाऊँगा। मगर क्या करूँ ? न तो अखबारों को पैकेज दे सकता हूँ, न मुफ्त में सवारियाँ ढोने वाली गाडि़याँ चला सकता हूँ और न अपने सजातीय शिल्पकारों की जमीनें बेच कर उन्हें भूमिहीन बना देने वाले उस भूमाफिया की तरह औरतों के हाथ में पाँच-पाँच सौ रुपये के नोट खोंस सकता हूँ कि आमा अपना इलाज करवा लेना, बैणी बच्चों को मिठाई खिलाना करके।
हमने उन्हें टोकना और यह बताना ठीक नहीं समझा कि जनता के लिये 'कुछ करने' के लिये विधानसभा में जाना जरूरी नहीं है। माना कि जन आन्दोलनों की एक सीमा है, अन्ततः राजनीति ही सब कुछ तय करती है, बदलाव के लिये हाथ में सत्ता का होना जरूरी है और भारत जैसे लोकतंत्र में सत्ता 'इलैक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन' के जरिये ही मिलती है। मगर उसके लिये किसी एक के विधायक बन जाने मात्र से क्या होता है ? पार्टी का सरकार बनाने लायक बहुमत में होना भी जरूरी होता है। या फिर पार्टी का ऐसी स्थिति में होना जरूरी होता है कि वह सरकार पर दबाव बना कर अपनी बातें मनवा सके। पार्टी बहुमत में आ भी गई, मगर उसने पार्टी विधायक होते भी आपको नहीं पूछा तो आप क्या कर लेंगे ? हर विधायक मंत्री भी तो नहीं बन सकता। यहीं उत्तराखंड का उदाहरण सामने है। भाजपा ने भुवन चन्द्र खंडूरी को मुख्यमंत्री पद से धकिया कर बाहर किया तो उनकी जगह पर आये निशंक ने खंडूरी को हाशिये पर डाल दिया। उनके चुनाव क्षेत्र में किसी भी तरह के विकास कार्य रुकवा दिये। रूठे हुए खंडूरी ने विधानसभा के सत्रों में हाजिरी लगाना भी बन्द कर दिया। वही खंडूरी सत्ता में वापस लौटे तो उन्होंने निशंक को कूड़ेदान में फेंक दिया और अब वे भाजपा के लिये इतने 'जरूरी' हो गये हैं कि चुनाव लड़ने के लिये पार्टी उन्हीं के नाम की माला जप रही है। तो जब मुख्यमंत्री रह चुके विधायकों की यह स्थिति हो सकती है तो सामान्य विधायक, जिसकी कोई पार्टी ही नहीं है या जिसकी पार्टी के बहुमत में आने की दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं है, की क्या हैसियत हो सकती है ? हाँ, यदि विधानसभा पूरे समय, पूरी गंभीरता और अनुशासन से, नियम-विधानों के अनुसार चलती तो शायद आप अपनी वाक्पटुता से विधानसभा में जनता की समस्याओं पर बहस कर सकते थे, जनता के हित में कानून बनवा सकते थे और कुला मिला कर जनता के दिल-दिमाग पर अपनी छाप छोड़ सकते थे। वैसा सब तो अब विधानसभाओं में होता नहीं। तो अगर आप जीत भी गये तो क्या कर लेंगे ? विधायक निधि के पैसे से ठेकेदारी करेंगे। विधायक की चिप्पी चिपकाये और ठेके हड़प सकते हैं, पैसे लेकर काम करवा सकते हैं….और क्या ?
….मगर यह सब हमने विधानसभा के उस उम्मीदवार से नहीं कहा……क्यों कहें…….वोट तो उसी को देंगे जो ठीक लगेगा….. सब अयोग्य लगेंगे तो नियम '49-0' में रजिस्टर में दस्तखत कर सबको खारिज कर आयेंगे!
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