Monday, February 13, 2012

आये चुनाव… गये चुनाव… लेखक : राजीव लोचन साह :: अंक: 11 || 15 जनवरी से 31 जनवरी 2012:: वर्ष :: 35 :February 2, 2012 पर प्रकाशित

आये चुनाव… गये चुनाव…

आये चुनाव… गये चुनाव…

election-and-evmएक और विधान सभा चुनाव सामने है। एक पृथक राज्य बनने के बाद उत्तराखंड के तीसरे आम चुनाव। नामांकन के लिये जा रहे नेताओं और उनके समर्थकों के जलूसों में लगते गगनभेदी नारे हाड़ कँपाती ठंड को भगाने की कोशिश कर रहे हैं, जबकि टिकट पाने में असफल रहे नेताओं के आँसू पाला बन कर जम रहे हैं। जिन दावेदारों को अपनी पार्टियों के टिकट मिल गये हैं वे ऐसे उत्साहित है, जैसे वे चुनाव जीत ही गये हों और उनकी आने वाली सात पीढि़याँ तर गई हों। जिनका टिकट कट गया, वे ऐसे दहाड़ मार कर रो रहे हैं, मानो बस अब उनके प्राण ही छूटने वाले हों। दैनिक अखबारों में रोजाना छपने वाली तीन-तीन, चार-चार पेजों और इलैक्ट्रिक चौनलों में घंटो के 'एयर टाईम' में फैली चुनाव सामग्री को देख कर लग रहा है मानो इस वक्त प्रदेश की सबसे बड़ी घटना विधानसभा चुनाव ही हों। जबकि सच्चाई यह है कि जिस आम मतदाता के नाम पर इतना हाहाकार हो रहा है, वह फिलहाल तटस्थ और वीतराग है। सिर्फ उन्हीं लोगों में अभी थोड़ा सा उत्साह, वह भी दिखावटी अधिक, दिखाई दे रहा है जो 100 या 200 रु. की दिहाड़ी, खाने के पैकेट और आने-जाने के लिये गाडि़यों की व्यवस्था के कारण सैर का मजा लेने के लिये नामांकन जलूसों में शामिल रहे हैं।

जिन लोगों को राजनीतिक रूप से जागरूक कहा जाता है, वह अवश्य इन चुनावी खबरों को पढ़-देख भी रहे हैं और उन पर जुगाली भी कर रहे हैं। किसी को टिकट कैसे मिला, किसी का नाम कैसे कट गया, किसके जीतने की सम्भावनायें ज्यादा हैं…..इन पर चर्चा होने लगी है। मगर इस सुविधाभोगी मध्य वर्ग से अधिकांश वोट डालने जाते ही नहीं। उनके लिये मतदान का दिन छुट्टी का दिन होता है। यदि वे मतदान करें तो मतदान का प्रतिशत बढ़े और शायद चुनाव के नतीजे भी कुछ बेहतर निकलें। भारत में लोकतंत्र को जिन्दा उन्हीं लोगों ने रखा है, जिन्हें हम अनपढ़ कहते हैं। पढ़ा-लिखा, सिर्फ दिमागी जमा-खर्च वाला मध्यवर्ग तो लोकतंत्र के लिये नासूर है। इससे भी खतरनाक वह उच्च वर्ग है, जिसे ऐसी लोकतांत्रिक प्रक्रिया अनावश्यक लगती है। 'कोई नृप होइ हमें क्या हानी' की तर्ज पर वह जानता है कि सरकार जो भी बने, करना उसे इस वर्ग के ही हित में है। चुनाव में उसे सिर्फ अपने काले धन के जखीरे से सभी संभावित विजेताओं के सामने 'कुकरग्रास' डाल देना होता है, ताकि जो जीते बाद में वह गुर्राये नहीं कि हमें तो आपने कोई मदद ही नहीं की।

दरअसल आजादी के इन चौंसठ सालों में चुनाव प्रणाली पतित होते-होते अब काले धन का उद्योग मात्र बन गयी है। सबसे ज्यादा एकमुश्त काला धन अगर कहीं खपता है तो किसी उद्योग में नहीं, बल्कि आम चुनावों में। मतदान के पीछे दो प्रवृत्तियाँ विशेष देखी जाती हैं। पहला जाति-धर्म और धन के लालच का है। इनमें भी जाति-धर्म के नाम पर उकसाना तो आजादी के पहले से ही चला आ रहा है, मगर धन का दबदबा धीरे-धीरे बढ़ा है और लगभग बीस साल पहले आर्थिक उदारीकरण शुरू होने के बाद तो आसमान छू गया है। राजनीतिक रूप से कोई व्यक्ति कितना ही सक्रिय और योग्य क्यों न हो, उसके लिये चुनाव जीतना तब तक सम्भव नहीं है, जब तक उसमें लाखों रुपया बहाने का बूता न हो। चुनाव आयोग ही एक विधानसभा क्षेत्र में ग्यारह लाख रुपये तक खर्च करने की अनुमति देता है। तो कोई व्यक्ति ईमानदारी और प्रतिबद्धता से राजनीति करे और उसकी अंटी में ग्यारह लाख रुपये भी हों, यह कैसे संभव है ? हालाँकि इतनी धनराशि से भी जीतना मुश्किल है। इस बार चुनाव आयोग की चौकसी के कारण जगह-जगह भारी मात्रा में यहाँ से वहाँ ले जाये जा रहे नोट पकड़े भी गये हैं। मगर वे समुद्र में पानी की एक बूँद जैसे हैं। इनसे सैकड़ों गुना पैसा अब तक खप चुका होगा और आगे भी खपेगा। यदि किसी प्रत्याशी के पास एक चुस्त और नीचे तक पहुँचा तंत्र है तो उसके चुनाव में जीतने की सम्भावना बढ़ जाती है। ग्रामीण और आर्थिक दृष्टि से कमजोर पृष्ठभूमि का मतदाता, जिससे पैसे लेता है अधिकांशतः उसी को वोट करता है। इतनी ईमानदारी और नैतिकता उसमें बची है। वह यह नहीं समझता कि चूँकि यह अवैध ढंग से कमाया गया और खर्च किया जा रहा काला धन है, अतः जरूरी नहीं कि जिससे पैसा लिया जाये उसी को वोट दिया जाये। वोट तो अपने विवेक के अनुसार किसी अन्य को भी दिया जा सकता है। उसके लिये मतदान के लिये इस रूप में दिया गया पैसा एक तरह की दिहाड़ी है। इस वर्ग के मतदाताओं का बहुत थोड़ा ही हिस्सा इतना चालाक हो सका है कि एक से अधिक उम्मीदवारों से पैसा भी ले ले और वोट अन्यान्य कारणों से करे।

दूसरी प्रवृत्ति रेस के घोड़े पर दाँव लगाने की है। मतदाता ने कुछ पार्टियाँ चुन ली हैं, जिन्हें वह मानता है कि वे जीतने वाली होती हैं। कांग्रेस और भाजपा तो राष्ट्रीय पार्टियाँ हो गईं, उत्तराखंड में तीस साल के चुनावी इतिहास और राज्य आन्दोलन की पृष्ठभूमि के कारण उत्तराखंड क्राति दल इस सूची में था। मगर अब उक्रांद अपनी अन्तर्कलह के कारण वह स्थान खो चुका है। बगल में मायावती शासित उ.प्र. से सटा होने, और अनावश्यक रूप से हरिद्वार को उत्तराखंड में जोड़ दिये जाने के बाद बने जनसांख्यिकीय समीकरणों के चलते उत्तराखंड में पिछले सालों में धुआँधार पैसा खर्च कर बहुजन समाज पार्टी तीसरे स्थान पर डट कर काबिज हो गई है। इन्हीं पार्टियों के उम्मीदवारों को मतदाता सामान्यतया वोट करता है, यह जानने के बावजूद कि अब तक इन्होंने कुछ नहीं किया और आगे भी ये कुछ नहीं करेंगे। इन उम्मीदवारों में यदि कोई ज्यादा मिलनसार हुआ, शादी-ब्याह-छठी-नामकरण में क्षेत्र के मतदाताओं के घर बिला नागा पहुँचता रहा तो इस कारण उसे कुछ तरजीह मिल जाती है, उसके राजनीतिक कौशल के कारण नहीं। मतदाता का तर्क यह बन गया है कि बाकी छोटे दलों के या निर्दलीय उम्मीदवार जीतने वाले तो हैं नहीं, फिर इन्हें वोट दे कर क्यों अपना वोट 'खराब' किया जाये। यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि जिस व्यक्ति के विचार, व्यवहार और व्यक्तित्व का मतदाता दैनंदिन जीवन में अत्यन्त सम्मान करता है, जिसके पास वह किसी काम के लिये या सलाह माँगने के लिये जाता रहता है, यदि वह व्यक्ति चुनाव में निर्दलीय अथवा किसी साधनविपन्न पार्टी का प्रत्याशी बन कर आ जाये तो वोट देते वक्त मतदाता उसे अत्यन्त बेरहमी से ठुकरा देता है। हालाँकि चुनाव के बाद वह फिर पहले की ही तरह उसी व्यक्ति के पास जाने लगता है। सिर्फ मतदान के वक्त वह उस व्यक्ति को घास नहीं डालता। यह 'वोट खराब होने' वाली अवधारणा भारतीय लोकतंत्र के लिये चिन्ताजनक है। मतदाता को यह समझना चाहिये कि मतदान उसके लोकतांत्रिक दायित्व की सबसे बड़ी अभिव्यक्ति है। अतः किसी ऐसे प्रत्याशी, जिसके विचारों या जीवन मूल्यों से उसकी सहमति हो, को ही उसे वोट देना चाहिये। वोट खराब होने की चिन्ता नहीं करनी चाहिये। इस प्रवृत्ति से हमारा लोकतंत्र विद्रूप हो गया और राजनीतिक ताकत कुछ चुनिन्दा राजनीतिक दलों तक सीमित हो गई है।

इन बड़ी पार्टियों का टिकट मिल जाने पर प्रत्याशी का फूले न समाना और टिकट कट जाने पर सद्यःविधवा औरत की तरह दहाड़ मार कर रोने लगने की घटनाओं को इसी आलोक में समझा जाना चाहिये। इन दलों का टिकट मिल जाने का मतलब है कि आधी लड़ाई तो फतह हो गई। इन राजनैतिक दलों से रूठ कर बाहर जाना, दूसरा दल बना लेना या निर्दलीय रूप में चुनाव लड़ना बहुत कारगर नहीं होता। बड़े-बड़े कद्दावर नेताओं को झख मार कर अपने पितृ दल में ही लौट कर आना पड़ता है। नवीनतम उदाहरण उमा भारती का है, जो कुछ साल तक एक पार्टी चला कर और कई तरह के नखरे दिखा कर फिर भाजपा में ही लौट आयीं।

एक और सच्चाई को समझा जाना चाहिये। आखिर विधायक बनने के लिये इतनी मारामारी क्यों होती है ? एक चुनाव क्षेत्र में उपलब्ध दर्जनों अनुभवी और योग्य कार्यकर्ताओं में से यदि कोई दल एक व्यक्ति को टिकट देता है तो बाकी लोगों को पार्टी का काम करने के बदले रोना-धोना क्यों करना चाहिये ? विधानसभा में जाकर ही कोई व्यक्ति कौन से कद्दू में तीर मार लेता है ? क्या पार्टी टिकट के लिये जान हलकान करने वाले इन लोगों को मालूम है कि विधायक के कर्तव्य और अधिकार क्या हैं ?

नागरिक शास्त्र का हमारा अल्पज्ञान तो बतलाता है कि विधायक को अपने चुनाव क्षेत्र में निरन्तर घूम कर वहाँ की समस्याओं को समझना चाहिये। फिर उन पर विधानसभा में बहस करनी चाहिये और कानून बनाने चाहिये। अब न तो विधायकों को चुनाव क्षेत्र में घूमने की फुर्सत है और न जन समस्याओं को समझने की। बहस करने की तमीज तो शायद ही किसी को हो, क्योंकि अधिकांश को तो नुक्कड़ सभाओं में ही बोलना नहीं आता, सदन तो बहुत बड़ी बात है और कानून बनाने के लिये आवश्यक ज्ञान होने का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। वैसे भी साल में तीन-चार बार रस्मअदायगी के लिये प्रदेश में सिर्फ चार-पाँच दिनों के लिये सदन चलता है, जिसमें आधे से अधिक समय ये बेशऊर विधायक शोरगुल और कार्रवाही ठप्प कर के बर्बाद कर देते हैं। फिर बाकी समय में नौकरशाहों द्वारा बनाये गये विधेयकों को हाथ खड़ा कर पारित कर देने की मजबूरी होती है। बात-बहस की गुंजाइश ही नहीं बचती। तो, जब सांवैधानिक दायित्व ही पूरे न हो रहे हों तो क्यों किसी को विधायक बनना चाहिये ?

दरअसल विधायक बनने के बाद सरकार को प्रभावित करने और प्रशासन में हस्तक्षेप करने की वैधता मिल जाती है। विधायक सरकार से ऐसी नीतियाँ बनवा सकता है और निर्णय करवा सकता है, जिससे उसे चुनाव लड़वाने वाले लोगों को आर्थिक लाभ हो तो उसकी झोली में भी निरन्तर पैसा गिरते रहे। वह नियुक्तियाँ और स्थानान्तरण करवा कर या ठेके दे-दिलवा कर पैसे बटोर सकता है। पहले यह प्रवृत्ति बहुत मजबूत नहीं थी और ठेके लेने-देने का काम छिप-छिपा कर होता था। मगर अल्पमत में अपना अस्तित्व बचाने को जूझ रही नरसिंहाराव सरकार की मेहरबानी के बाद शुरू हुए सांसद निधि और विधायक निधि ने तो विधायकों को कानून निर्माता जनप्रतिनिधि की जगह पूरी तरह धंधेबाज ठेकेदार बना दिया है। इस निधि से वह अपने रिश्तेदारों तथा कार्यकर्ताओं को ठेके दिलवा सकता है। यह आर्थिक-व्यावसायिक कारण ही विधायक बनने की ललक के पीछे होते हैं, कोई लोकतांत्रिक कारण नहीं।

चुनाव में भाग लेने की लालसा के पीछे एक अबूझ सा कारण भी है। समाज में स्वीकार्यता और सम्मान पाने के लिये गाडि़यों में प्लेट लगाने का बड़ा शौक दिखाई देता है, गोया अपने कर्म और आचरण से तो आप कुछ हासिल नहीं कर सके, अब ये बोर्ड टाँक कर ही आप की शान में इजाफा हो जायेगा। इसी तरह से यह गलतफहमी भी है कि चुनाव लड़ कर समाज में नेता के रूप में मान्यता मिल जायेगी। इसलिये हमारे देश में अब हर तरह के चुनाव में बेइन्तहा उत्साह दिखाई देता है। छात्र संघ के चुनाव जीत कर तो माना कि बिल्डरों, शराब वालों से वसूली का लाइसेंस मिल जाता है, मगर टैक्सी यूनियन का चुनाव लड़ कर क्या मिलता होगा ? मगर टैक्सी यूनियन के चुनाव में भी उसी तरह पैसा बहाते और भव्य जलूस निकालते देखा जाता है। इसीलिये पंचायतों से लेकर विधानसभा चुनाव में भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है कि जो लोग अन्यथा अपने घरों में दुबके पड़े रहते हैं, वे चुनाव में नामांकन कर नेता पद का लाइसेंस लेते हैं। मगर बड़ी पार्टियों के हारे हुए उम्मीदवारों के लिये तो चुनाव लड़ना काम आ जाता है, क्योंकि वे भी छोटे पैमाने पर सत्ता के गलियारों में काम निकाल कर मलाई खाने की हैसियत पा जाते हैं, किन्तु छोटे, निर्दलीय उम्मीदवारों के लिये तो चुनाव लड़ना आत्मसंतुष्टि और खामख्वाह की आत्ममुग्धता के अलावा कुछ नहीं है।

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