Saturday, February 4, 2012

अपनी सरकार, विदेशी पूंजी के द्वार (09:35:53 PM) 04, Feb, 2012, Saturday

अपनी सरकार, विदेशी पूंजी के द्वार
(09:35:53 PM) 04, Feb, 2012, Saturday

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अपनी सरकार, विदेशी पूंजी के द्वार
(09:35:53 PM) 04, Feb, 2012, Saturday
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 सीताराम येचुरी
सभी संकेतक आर्थिक गति के धीमा पड़ने की ओर इशारे कर रहे हैं। इसके बावजूद, यूपीए-द्वितीय की सरकार नवउदारवादी आर्थिक सुधार के अपने पुराने रास्ते पर ही चलते रहने पर अड़ी हुई है। वास्तव में सारे आसार तो इसी के हैं कि विदेशी पूंजी के और ज्यादा प्रवाहों को खींचने की उम्मीद में, आने वाले सालाना बजट की पूर्व-संध्या में उदारीकरण की मुहिम को और भी तेज किया जा सकता है। शायद सरकार की समझ में यह बात आ ही नहीं रही है कि विश्व भर में आर्थिक संकट की स्थिति बद से बदतर होने के चलते, हमारी अर्थव्यवस्था में विदेशी पूंजी के ऐसे प्रवाहों के आने की शायद ही कोई संभावना है। इससे बेखबर, सरकार तो बस भारत को एक ऐसी 'उदीयमान अर्थव्यवस्था' के रूप में पेश करने में ही जुटी हुई है, जो विदेशी पूंजी के लिए पश्चिम में संकट की इस घड़ी में उसके लिए एक अनुकूल मेजबान की भूमिका अदा करने के लिए तैयार हैं कि आएं और भारत से, जाहिर है कि जनता की कीमत पर, अनाप-शनाप मुनाफे बटोरकर ले जाएं!
 खबरों से ऐसा लग रहा है कि सरकार फरवरी के पहले सप्ताह में ही योरपीय संघ के साथ मुक्त व्यापार समझौते (एफ टी ए) पर दस्तखत करने की तैयारियां कर रही है। अब यह तो किसी से छुपा हुआ नहीं है कि योरपीय संघ तो खुद ही इस समय गंभीर संकट की गिरफ्त में है और इस संकट से यूरो के अस्तित्व के लिए ही खतरा पैदा हो गया है। जाहिर है कि योरपीय संघ के साथ इस मुक्त व्यापार समझौते का एक ही काम होगा कि मुनाफों की कमी की मारी योरपीय पूंजी के लिए भारतीय बाजार खोल दिए जाएं। इस क्रम में योरप के बहुत भारी सब्सीडियों के बल पर निर्यातित कृषि व दुग्ध उत्पादों से भारतीय बाजारों को पाट ही दिया जाएगा। यह हमारी किसान जनता के लिए और हमारी कृषि अर्थव्यवस्था के लिए, जो पहले ही गहरे संकट के शिकंजे में हैं, सर्वनाश का न्यौता जाना ही होगा। 
आज जब खुद सरकारी एजेंसियां किसानों को अपने द्वारा घोषित न्यूनतम समर्थन मूल्य देने में भी हीला-हवाला कर रही हैं और इसके चलते किसानों को औने-पौने दाम पर अपनी पैदावार बेचने पर मजबूर होना पड़ रहा है, इस तरह हमारी अर्थव्यवस्था के द्वार योरप के लिए खोला जाना, हमारी किसान जनता पर और भी मुसीबतें ढहाने का ही कारण बनेगा। अचरज नहीं कि हताशा में किसानों की आत्महत्याओं की पहले ही बहुत ऊंची दर और भी बढ़ जाए। आसियान देशों के साथ जो मुक्त व्यापार समझौता किया गया था उसके नतीजे सामने हैं और नकदी फसल उत्पादकाेंं पर तथा खासतौर पर केरल में ऐसे उत्पादकों पर इस समझौते के सर्वनाशी असर की ही कहानी कहते हैं।
 उधर, प्रधानमंत्री ने भी यह स्पष्ट कर दिया है कि विधानसभाई चुनावों के मौजूदा चक्र के फौरन बाद, भारत के खुदरा व्यापार के दरवाजे विदेशी निवेशों के लिए खोल दिए जाएंगे। पुन:, इस कदम के जरिए भी संकट में फंसी अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के लिए अपने मुनाफे अधिकतम कर लेने के अवसर खोले जा रहे होंगे जबकि इसके लिए छोटे खुदरा व्यापार में लगे करीब 4 करोड़ लोगों (उनके परिवारवालों को भी गिन लिया जाए तो 20 करोड़ लोगों) की रोजी-रोटी की बलि चढ़ायी जा रही होगी। 
इसी तरह, हमारे देश के बैंकिंग व बीमा क्षेत्रों में भी विदेशी पूंजी के लिए रास्ता खोला जाना है। याद रहे कि भाजपा ने यूपीए सरकार से हाथ मिलाकर, संसद में पी एफ आर डी ए विधेयक पारित कराया था और इस तरह लाखों करोड़ रुपए के पेंशन फंडों के निजीकरण का रास्ता खुलवाया था। इस कदम के जरिए भी, करोड़ों कर्मचारियों तथा अन्य मेहनतकशों के भविष्य को असुरक्षित बनाते हुए, ये विशाल वित्तीय संसाधन अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हवाले किए जा रहे होंगे कि इनकी मदद से अपने सट्टेबाजारा मुनाफों को और तेजी से बढ़ाएं।
 विदेशी पूंजी के प्रवाहों को आकर्षित करने की इन कोशिशों के लिए यूपीए सरकार अब एक बहाना यह बना रही है कि इससे, बढ़ते राजकोषीय घाटे को संभालने में मदद मिलेगी। लेकिन, अगर नैगम कंपनियों व संपन्नों को दी गयी कर रियायतें वापस ले ली गयी होतीं, तो राजकोषीय घाटा खुद ब खुद खत्म हो गया होता। याद रहे कि इस तरह की कर रियायतों ने धनिकों की और धनी होने में ही मदद की है और इसके बल पर ही देश में डालर अरबपतियों की संख्या ताबड़तोड़ तेजी से बढ़ी है और अब उनकी कुल परिसंपत्तियां, हमारे देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद के तिहाई हिस्से से ऊपर निकल चुकी हैं। इस तरह, यह तो साफ ही है कि यूपीए सरकार की नीतिगत दिशा, विदेशी पूंजी तथा भारतीय बड़े कारोबारियों के मुनाफे बढ़ाकर अधिकतम करने के हिसाब से ही संचालित है और इसकी कीमत भारतीय जनता के विशाल हिस्सों को अपने जीवनस्तर में गिरावट से चुकानी पड़ रही है।
 पुन: अचरज की बात नहीं होगी कि बढ़ते राजकोषीय घाटे को नीचे लाने के नाम पर सरकार आने वाले बजट में, पहले ही बहुत मामूली सामाजिक क्षेत्र पर सार्वजनिक खर्चों में और कटौती कर दे। इस तरह, भारतीय जनता का विशाल बहुमत इस दुहरी कैंची के हमले की मार में है। एक तरफ तो उदारीकरण की आर्थिक नीतियां हैं जो विदेशी व भारतीय बड़ी पूंजी के अनाप-शनाप मुनाफे ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने तथा दूसरे सिरे पर हमारी जनता के विशाल बहुमत का दरिद्रीकरण करने में लगी हुई हैं। और दूसरी ओर जो मामूली सी सेवाएं व सार्वजनिक सुविधाएं उपलब्ध भी हैं, उन्हें जनता तक पहुंचाने के लिए जरूरी न्यूनतम मुहैया कराने के बजाए, जो बहुत ही अपर्याप्त श्रम शक्ति उपलब्ध भी है, उसमें भी कटौतियां की जा रही हैं। 
सच यह है कि हमारे देश में न तो पूंजी की कमी है और न श्रम शक्ति की। अगर महाघोटालों के जरिए राष्ट्रीय संसाधनों की महालूट को रोक दिया जाय और संपन्न तबकों को दिए जानी विशाल कर छूटों के संसाधनों का उपयोग हमारे देश के लिए बहुत ही जरूरी सामाजिक बुनियादी ढांचे के निर्माण में निवेश करने के लिए किया जाय, तो भारत अपनी सारी जनता की बुनियादी जरूरतें भी पूरी कर लेगा और रोजगार में बढ़ोतरी के जरिए, आम जनता के जीवन स्तर को उठाने में भी कामयाब रहेगा।

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