Thursday, January 26, 2012

Fwd: [बहुजन शासक] हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों की आर्थिक...



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From: Nilakshi Singh <notification+kr4marbae4mn@facebookmail.com>
Date: 2012/1/26
Subject: [बहुजन शासक] हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों की आर्थिक...
To: बहुजन शासक <170298903031516@groups.facebook.com>


हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों की...
Nilakshi Singh 6:55pm Jan 26
हमारे संविधान के नीति-निर्देशक तत्वों की आर्थिक नीति से संबंधित अनुच्छेदों में एक समतावादी समाज की परिकल्पना की गयी है जिसमें अर्थसत्ता पर बाजारू शक्तियों या प्रवृत्तियों का नहीं बल्कि समाज का नियंत्रण और हित-साधन हो. यह संविधान नीति-निर्देशक तत्वों को शासन के मूलभूत सिद्धांत बताते हुए राज्य को निर्देश देता है कि वह कानून बनाते समय इन तत्वों को लागू करना अपना कर्त्तव्य समझेगा. यदि राज्य ऐसा नहीं करता है तो संविधान की दृष्टि में वह कर्त्तव्यच्युत समझा जाएगा. आर्थिक क्षेत्र में राज्य अपने इस कर्त्तव्य को न केवल पूरा नहीं कर पा रहा है बल्कि उसकी दृष्टि और नीतियां अपने में ही उसकी दायित्वहीनता की घोषणा करती लगती हैं. संविधान के अनुच्छेद 38 में सामाजिक और राजनीतिक न्याय के साथ आर्थिक न्याय का भी उल्लेख है और इसी अनुच्छेद के दूसरे भाग में आर्थिक न्याय की व्याख्या करते हुए स्पष्ट कहा गया है कि 'राज्य, विशेष तौर पर, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा.'
अगले अनुच्छेद में सभी स्त्री-पुरुषों के लिए जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने के अधिकार को सुनिश्चित करने तथा समान कार्य के लिए समान वेतन की बात है. समुदाय के भौतिक साधनों के स्वामित्व और नियंत्रण को इस प्रकार बांटने की बात की गयी है जिससे समुदाय के हितों का संरक्षण हो सके. आर्थिक व्यवस्था में सर्वसाधारण के लिए धन और उत्पादन-साधनों के अहितकारी केन्द्रीयकरण को रोकने का प्रस्ताव भी किया गया है. काम की उचित दशा और कर्मकारों के शिष्ट जीवन स्तर आदि को सुनिश्चित करने के साथ-साथ उद्योगों के प्रबंधन में कर्मकारों की सक्रिय सहभागिता निश्चित करने के लिए भी राज्य को निर्देश दिए गये हैं.

स्पष्ट है कि आर्थिक उदारीकरण के नाम पर यदि राज्य अर्थसत्ता के कुछ हाथों में केन्द्रीयकरण को प्रोत्साहित करता है तथा बाजार की स्वतंत्रता के नाम पर आय, वेतन या काम की सुविधाओं में असमानता को स्वीकार करता है- जैसा कि पिछले दो दशकों से वह स्पष्टत: करने लगा है- तो इसे भी सरकार द्वारा संविधान का मखौल बनाना ही समझा जाना चाहिए. आज तक किसी भी सरकार ने आय की असमानता दूर करने का कोई वास्तविक प्रयास नहीं किया है और न इसके लिए कोई कार्यक्रम या कानून बनाया है. आय का तात्पर्य केवल वेतन नहीं है, उद्योगों को होने वाला मुनाफा भी आय ही है. इस तरह देखा जाए तो भारत की सरकार संविधान के प्रावधानों के विपरीत कार्य करती है. अतः ऐसी सरकारों को सत्ता में बने रहने का कोई हक नहीं है.

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Palash Biswas
Pl Read:
http://nandigramunited-banga.blogspot.com/

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