Thursday, 12 January 2012 12:22 |
अरुण कुमार 'पानीबाबा' उस समय से यह वर्ग उत्तर भारत की राजनीति में निरंतर उलट-पुलट कर रहा है। सन 1989 में संपन्न नौवीं लोकसभा के आम चुनाव के समय हमने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमीनी स्तर पर एक प्रपंच यह भी देखा था कि पिछड़े और अति पिछड़े मुसलमानों में गरीब तबके चुनावी आचरण में अति पिछड़ी और दलित जातियों के साथ संश्लिष्ट होने लगे हैं। गरीब मुसलिम समुदाय में राजनीतिक वर्ग-चेतना का उभार ही 2007 में मायावती को मिले पूर्ण बहुमत का निमित्त था। बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण से स्पष्ट है कि भाजपा में अगड़े-पिछड़े और शहरी-ग्रामीण दो फाड़ हैं और गृह-कलह तीव्र है। दिल्ली स्थित पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व जमीनी-ग्रामीण नेतृत्व के विरुद्ध है। उमा भारती का मौन और बयान दोनों इसी विरोधाभास के लक्षण हैं। कांग्रेस में राहुल गांधी के लिए जो भी विचार परिषद काम कर रही है उसने ऐसे अनेक तथ्यों का कागजी संकलन तो अवश्य कर लिया है, और इसी आधार पर उत्तर प्रदेश में चुनावी अभियान चलाने का प्रयास हो रहा है। बेनी प्रसाद वर्मा को इसी प्रक्रिया के तहत महत्त्व मिला है। शहरी अगड़ा मतदाता बेपेंदी का लोटा है, और सत्ता से दूर होने से बड़ी लाचारी में है। अण्णा हजारे उसे सत्ता दिलवा सकते हों तो वह उनके साथ है, और अगर मायावती वैसा कर सकती हों तो वह उनके साथ है। कस्बाई-जिला स्तरीय पर्यवेक्षकों के मुताबिक, जब मतदान की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और शहरी अगड़े को गैर-जाटव दलित, अति पिछड़ा वर्ग और मजलूम-मुफलिस मुसलमान कांग्रेस की तरफ झुकते दिखाई देंगे तो वह भी उन्हीं के साथ हो जाएगा। इसलिए जैसे-जैसे मतदान की तारीख नजदीक आएगी वैसे-वैसे कांग्रेस की स्थिति में सुधार होगा। संक्षेप में, भ्रष्टाचार का मुद्दा चुनावी बहस का विषय तो हो सकता है, मगर प्रक्रिया, प्रणाली, व्यवस्था परिवर्तन का हेतु और कारक नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार अपने आप में अति संवेदनशील मुद्दा है- वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और चुनाव प्रणाली में ईमानदार राजनीति की गुंजाइश न्यूनतम है। इस लेखक जैसे अनेक पुराने राजनीतिक कार्यकर्ता अभी मौजूद हैं जिन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चुनाव लड़ते-लड़वाते देखा है- उनके समर्थन में, उनके विपक्ष में चुनावों में भागीदारी की है। वे भलीभांति जानते हैं कि नेहरू स्वयं भी चुनाव खर्च का जो ब्योरा प्रस्तुत करते थे वह सही नहीं होता था। इस चुनाव प्रणाली में 1952 से आज तक दो चार-अपवाद हो सकते हैं जिन्होंने चुनाव खर्च की सीमा का उल्लंघन न किया हो और अन्य शुचिता का भी पालन किया हो। चुनाव-खर्च आदि मामूली मुद्दे हैं- बड़ा मुद््दा यह है कि संसदीय प्रजातंत्र पर गैर-राजनीतिक, अराजनीतिक और बड़ी संख्या में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का कब्जा है। महज सैद्धांतिक दृष्टि से नजर डालें- सात बरस से देश का प्रधानमंत्री ऐसा व्यक्ति है जिसे अत्यंत संकुचित परिभाषा का व्यापकतम अर्थ करके भी जन-प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। समूची राजनीतिक व्यवस्था और भारत-राज खतरे में है, लेकिन इस बाबत कहीं छिटपुट विचार या हल्की-फुल्की टीका-टिप्पणी तक दिखाई नहीं पड़ती। गौरतलब है कि अण्णा आंदोलन की 'विमर्श परिषद' के सदस्य राजनीति की दुर्दशा से अपरिचित और आमजन से विलग लोग हैं। यही वजह है कि अण्णा का आंदोलन विश्व बैंक जैसी संस्था-मनोवृत्ति से प्रेरित दिखाई पड़ता है। जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही। मगर यह स्पष्ट है कि अण्णा हजारे निपट सरलमना व्यक्ति हैं और उनके गांव रालेगण सिद्धी के पांच सूत्री कार्यक्रम- जलबंदी, बाड़बंदी, मेड़बंदी, नसबंदी, नशाबंदी- में से मेड़बंदी और नशाबंदी को छोड़ शेष तीन कार्यक्रम भारत-मेधा विरोधी हैं। जलबंदी, बाड़बंदी, नसबंदी औपनिवेशिक संबंध को सक्रिय बनाने वाले हैं। अण्णा टोली चुनाव प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार बन कर ही यह तथ्य सीख सकेगी कि दूषित राजनीति का औपनिवेशिक रिश्ता क्या है। इस चुनाव प्रणाली के आधार पर निर्मित तंत्र नैतिकतावादी हो ही नहीं सकता। हम यह विमर्श प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं कि जो दल (कांग्रेस) भारतीय राजनीति की समस्त सड़ांध का मूल कारक या कर्ता है उसे इस चुनाव में मिलने वाली बढ़त से कोई नहीं रोक सकता। इस चुनाव में कांग्रेस विधायकों की संख्या 2007 की तुलना में कम से कम ढाई गुनी हो जाने की संभावना स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। उत्तर प्रदेश की राजनीति को जानने-समझने वाले पर्यवेक्षकों का कहना है कि अण्णा टोली के सदस्य इस चुनाव में कांग्रेस को मिलने वाली सफलता को आधा भी नहीं कर पाएंगे। हमने स्वयं पहले आम चुनाव (1952) से इस नौटंकी में दरी बिछाने का काम किया है- उस नाते जो कुछ भी कह रहे हैं, तीव्र पीड़ा के अहसास से कह रहे हैं। देश की जनता राजनीति में सक्रिय भागीदारी की इच्छुक है, सामर्थ्य भर भागीदारी करती भी है। वह मतदान के माध्यम से विकल्प तलाशने का प्रयास करती है। लेकिन चुनाव समाप्त होते ही, सिर्फ आम जनता नहीं, संगठन के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों तक की राजकाज-प्रशासन में कोई भूमिका नहीं बचती। प्रशासनिक तंत्र पर नीचे से ऊपर तक नौकरशाही का कब्जा है- जिस क्षण 'जन प्रतिनिधि' शासन में पद की शपथ लेता है उसी पल सरकारी कर्मचारी (छोटा या बड़ा) नेता का थैला कार्यकर्ता के हाथों से छीन लेता है। अधिकतर राजनीतिक निजी स्तर पर अपना और अपने नेता का भ्रष्ट और अनैतिक होना राजनीति में सफलता के लिए अनिवार्य मानते हैं। यह अत्यंत हताशाजनक स्थिति है और इस स्थिति को बदलना ही अण्णा टोली के सामने सबसे बड़ी चुनौती है। |
Friday, January 13, 2012
चुनाव और अण्णा आंदोलन
चुनाव और अण्णा आंदोलन
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment