Friday, January 13, 2012

चुनाव और अण्णा आंदोलन

चुनाव और अण्णा आंदोलन


Thursday, 12 January 2012 12:22

अरुण कुमार 'पानीबाबा' 
जनसत्ता 12 जनवरी, 2012 : उत्तर प्रदेश के लोक रंगमंच पर 'विधानसभा चुनाव' नाम से जो नौटंकी शुरू हो चुकी है उसमें बज रहे चार जोड़ी दमामों और नौबतों का शोर सुनाई देने लगा है। हाल-फिलहाल इस 'चतुर्दिश' नौटंकी में आम दर्शक को चकरा देने वाली संभ्रांति के अतिरिक्त अन्य कुछ देख पाना सहज नहीं- पर इस नौटंकी का अंतिम दृश्य- जिसका प्रमुख लेखक, निर्देशक और कलाकार आम नागरिक स्वयं है- कल्पना से बहुत अधिक असमंजसकारी हो सकता है।
उत्तर प्रदेश के मतदाता का कहना है कि चतुष्कोण- भाजपा, सपा, बसपा और कांग्रेस-लोकदल गठजोड़- के कलाकारों की अदाओं, परस्पर संवाद और संगीत आदि का वह पुराना परिचित है, उनमें आपस में जो प्रहसन चलता रहता है, उस सब का उसे ठीक-ठीक अनुमान है। वह तो यह पूछ रहा है कि भ्रष्टाचार विरोधी रंग-टोली के नेता अण्णा हजारे जो तमाशा लेकर उत्तर प्रदेश आने वाले थे वे अपना मंच कब सजाएंगे।
हमें भी ऐसा सूझता है कि उत्तर प्रदेश में चल रही चुनावी नौटंकी में सक्रिय भागीदारी करने से ही हजारे बाबा और उनकी रंग-टोली को अंदाजा हो सकेगा कि वे सबके सब कितने कैसे सरलमना, नादान और भारत-प्रजातंत्र की नौटंकी कला से करीब-करीब अनजान हैं। इस देश को जानने-समझने का न अन्य मौका है, न मारग। चुनाव-प्रक्रिया में अपना मोर्चा खोल कर ही वे सीख सकेंगे कि भारतीय शासनतंत्र की मूल समस्या भ्रष्टाचार है या अराजनीति? अगर मूल रोग के बारे में समझ बनने लगेगी तो निदान और उपचार की समझ भी बन सकती है- यह अहसास भी हो सकता है कि उनके द्वारा प्रस्तावित लोकपाल के तात्कालिक, निकटवर्ती और दूरगामी क्या नतीजे होंगे? 
पहले एक नजर चुनावी परिदृश्य पर। मुकाबला चतुष्कोणीय है- बसपा सुप्रीमो मायावती (बहन जी) की जद्दोजहद मुख्यमंत्री की कुर्सी बचाने की है, तो समाजवादी मुखिया मुलायम सिंह की अभिलाषा पुत्र अखिलेश यादव का अपने जीते-जी विधिवत राजतिलक करने की। आरंभिक दृश्यों में बसपा और सपा इस नौटंकी के मुख्य पात्र या प्रतिद्वंद्वी हैं। परदा उठने से पहले तीसरे-चौथे स्थान के लिए कांग्रेस और भाजपा में संघर्ष बताया जाता था, लेकिन परदा उठते ही सट््टा बाजार में भाजपा को चौथे स्थान पर आंका जाने लगा है।
प्रवेश दृश्य में बहनजी ने जो चंडी रूप प्रदर्शित किया उससे एकाएक संभ्रांति व्याप गई, उन्होंने मंच पर अवतरित होने की प्रक्रिया में इक्कीस भाइयों को निकाल दिया। जिन बाबू सिंह कुशवाहा को बिल्कुल सहोदर मान लिया था उन्हें भी निकाल बाहर किया। जनता ने समझ लिया कि बहनजी के घर में भितरघात चल रहा है और बहनजी निराश हैं। 
पर्यवेक्षक कह रहे हैं कि बहन जी ने जो किया वह उनकी प्रकृति और प्रवृत्ति के अनुरूप है, कुछ भी अचरज जैसा नहीं। लेकिन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने जिस तरह अपने दल के दिग्गजों को बिना मनाए दूसरे दल के बहिष्कृतों को अपने पाले में लिया उससे यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय स्तर पर मुख्य विपक्ष की कमान एक अनाड़ी के हाथ में है, और पार्टी के भीतर नेतृत्व (तीन अगड़े और एक आधा  पिछड़ा) और जमीनी कार्यकर्ता (मूलत: पिछड़े) के बीच घमासान है। इस नई हालत में दर्शक कह रहा है कि बहनजी ने बिला वजह इतनी जल्दी यह मान लिया कि कुर्सी तो खिसक गई- बस इसी खिसियाहट में परम हितैषी 'सहोदर' कुशवाहा को चलता कर दिया। भाजपा ने उन्हें गले लगा कर गृहकलह को न्योता दे डाला और चुनाव में उसे इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा। 
इस मौके पर अण्णा हजारे अस्वस्थ हैं और उनकी गैरहाजिरी में टोली के दिग्गज दिशाहीन। विश्वसनीय पर्यवेक्षकों का कहना है कि यह कुल किस्सा अण्णा के दांव का नतीजा है: शहरी मतदाताओं- खासकर वे जो अपने को रोशन-खयाल और लोकतंत्र का चौकीदार वगैरा मानते हैं- ने तय कर लिया है कि इस बार वोट हर तरह से ठोंक-बजा कर स्वच्छ छवि के उम्मीदवार को ही देंगे। बस ऐसे अर्द्धसत्यों के प्रचार से धूल उड़ने लगी, वही बहनजी की आंख की किरकिरी बन गई।
भाजपा में जो कुछ हो रहा है उसमें विचारणीय विषय यह है कि जो पार्टी भ्रष्टाचार के प्रतीक पुरुष सुखराम और प्रमोद महाजन आदि को पचा सकती है, सात सितारा होटल में परिसंवाद-सम्मेलन आयोजित कर सकती है, वह बाबू सिंह कुशवाहा को क्यों नहीं पचा सकती? सिर्फ इसलिए कि वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी, लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज, राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेटली, वेंकैया नायडू को दिल्ली की गद्दी निकट आती दिखाई पड़ रही है, इन नेताओं को निजी आधार शहरी मतदाता में दिखाई पड़ता है। इनके चेतन-अवचेतन में अटल बिहारी वाजपेयी का उदाहरण हावी है। 
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख गुरु गोलवलकर ने वाजपेयी को शहरी मध्यवर्ग में लोकप्रिय बना कर ही संघ परिवार की राजनीति को आगे बढ़ाया था। इन नेताओं को न तो गोविंदाचार्य की 'सोशल इंजीनियरिंग' (1989 से 1998 तक) वाली भूमिका का स्मरण है, और न ही भारतीय लोकतंत्र की अगड़ा-पिछड़ा-अति पिछड़ा, दलित की परस्परता में जतिवादी वर्ग-संघर्ष और समरसता की गत्यात्मकता का, जिसे विश्व हिंदू परिषद ने राम जन्मभूमि आंदोलन के माध्यम से अनायास ही उभार दिया था।
जो वोट-तंत्र भारत में विकसित हुआ है उसकी एक संवेदनशील कुंजी अति पिछड़ा वर्ग की दुविधा है। यह समुदाय   प्रकृति और प्रवृत्ति से हिंदुत्ववादी है, संख्या की दृष्टि से स्थानीय स्तर पर अनेक समुदायों में बिखरा हुआ है। इसलिए अहीर, जाट, गूजर और दलित की तरह यह वर्ग अभी तक अपना दल बनाने में सफल नहीं हुआ है, लेकिन राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा तो जाग चुकी है। बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में नीतीश कुमार की बड़ी सफलता का राज


वास्तव में अति पिछड़ों की 'सोशल इंजीनियरिंग' ही था। पांचवीं लोकसभा (1971) का चुनाव वह पहला मौका था जब उत्तर भारत में ग्रामीण वोट पिछड़ों और दलितों व अति पिछड़ों में विभाजित हो गया था। 
उस समय से यह वर्ग उत्तर भारत की राजनीति में निरंतर उलट-पुलट कर रहा है। सन 1989 में संपन्न नौवीं लोकसभा के आम चुनाव के समय हमने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जमीनी स्तर पर एक प्रपंच यह भी देखा था कि पिछड़े और अति पिछड़े मुसलमानों में गरीब तबके चुनावी आचरण में अति पिछड़ी और दलित जातियों के साथ संश्लिष्ट होने लगे हैं। गरीब मुसलिम समुदाय में राजनीतिक वर्ग-चेतना का उभार ही 2007 में मायावती को मिले पूर्ण बहुमत का निमित्त था। 
बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण से स्पष्ट है कि भाजपा में अगड़े-पिछड़े और शहरी-ग्रामीण दो फाड़ हैं और गृह-कलह तीव्र है। दिल्ली स्थित पार्टी का केंद्रीय नेतृत्व जमीनी-ग्रामीण नेतृत्व के विरुद्ध है। उमा भारती का मौन और बयान दोनों इसी विरोधाभास के लक्षण हैं। 
कांग्रेस में राहुल गांधी के लिए जो भी विचार परिषद काम कर रही है उसने ऐसे अनेक तथ्यों का कागजी संकलन तो अवश्य कर लिया है, और इसी आधार पर उत्तर प्रदेश में चुनावी अभियान चलाने का प्रयास हो रहा है। बेनी प्रसाद वर्मा को इसी प्रक्रिया के तहत महत्त्व मिला है।
शहरी अगड़ा मतदाता बेपेंदी का लोटा है, और सत्ता से दूर होने से बड़ी लाचारी में है। अण्णा हजारे उसे सत्ता दिलवा सकते हों तो वह उनके साथ है, और अगर मायावती वैसा कर सकती हों तो वह उनके साथ है। कस्बाई-जिला स्तरीय पर्यवेक्षकों के मुताबिक, जब मतदान की प्रक्रिया शुरू हो जाएगी और शहरी अगड़े को गैर-जाटव दलित, अति पिछड़ा वर्ग और मजलूम-मुफलिस मुसलमान कांग्रेस की तरफ झुकते दिखाई देंगे तो वह भी उन्हीं के साथ हो जाएगा। इसलिए जैसे-जैसे मतदान की तारीख नजदीक आएगी वैसे-वैसे कांग्रेस की स्थिति में सुधार होगा।
संक्षेप में, भ्रष्टाचार का मुद्दा चुनावी बहस का विषय तो हो सकता है, मगर प्रक्रिया, प्रणाली, व्यवस्था परिवर्तन का हेतु और कारक नहीं हो सकता। भ्रष्टाचार अपने आप में अति संवेदनशील मुद्दा है- वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था और चुनाव प्रणाली में ईमानदार राजनीति की गुंजाइश न्यूनतम है। इस लेखक जैसे अनेक पुराने राजनीतिक कार्यकर्ता अभी मौजूद हैं जिन्होंने प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को चुनाव लड़ते-लड़वाते देखा है- उनके समर्थन में, उनके विपक्ष में चुनावों में भागीदारी की है। वे भलीभांति जानते हैं कि नेहरू स्वयं भी चुनाव खर्च का जो ब्योरा प्रस्तुत करते थे वह सही नहीं होता था। इस चुनाव प्रणाली में 1952 से आज तक दो चार-अपवाद हो सकते हैं जिन्होंने चुनाव खर्च की सीमा का उल्लंघन न किया हो और अन्य शुचिता का भी पालन किया हो। 
चुनाव-खर्च आदि मामूली मुद्दे हैं- बड़ा मुद््दा यह है कि संसदीय प्रजातंत्र पर गैर-राजनीतिक, अराजनीतिक और बड़ी संख्या में आपराधिक पृष्ठभूमि वाले लोगों का कब्जा है। महज सैद्धांतिक दृष्टि से नजर डालें- सात बरस से देश का प्रधानमंत्री ऐसा व्यक्ति है जिसे अत्यंत संकुचित परिभाषा का व्यापकतम अर्थ करके भी जन-प्रतिनिधि नहीं माना जा सकता। समूची राजनीतिक व्यवस्था और भारत-राज खतरे में है, लेकिन इस बाबत कहीं छिटपुट विचार या हल्की-फुल्की टीका-टिप्पणी तक दिखाई नहीं पड़ती।
गौरतलब है कि अण्णा आंदोलन की 'विमर्श परिषद' के सदस्य राजनीति की दुर्दशा से अपरिचित और आमजन से विलग लोग हैं। यही वजह है कि अण्णा का आंदोलन विश्व बैंक जैसी संस्था-मनोवृत्ति से प्रेरित दिखाई पड़ता है। जरूरी नहीं कि ऐसा हो ही। मगर यह स्पष्ट है कि अण्णा हजारे निपट सरलमना व्यक्ति हैं और उनके गांव रालेगण सिद्धी के पांच सूत्री कार्यक्रम- जलबंदी, बाड़बंदी, मेड़बंदी, नसबंदी, नशाबंदी- में से मेड़बंदी और नशाबंदी को छोड़ शेष तीन कार्यक्रम भारत-मेधा विरोधी हैं। जलबंदी, बाड़बंदी, नसबंदी औपनिवेशिक संबंध को सक्रिय बनाने वाले हैं।
अण्णा टोली चुनाव प्रक्रिया में सक्रिय भागीदार बन कर ही यह तथ्य सीख सकेगी कि दूषित राजनीति का औपनिवेशिक रिश्ता क्या है। इस चुनाव प्रणाली के आधार पर निर्मित तंत्र नैतिकतावादी हो ही नहीं सकता। हम यह विमर्श प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं कि जो दल (कांग्रेस) भारतीय राजनीति की समस्त सड़ांध का मूल कारक या कर्ता है उसे इस चुनाव में मिलने वाली बढ़त से कोई नहीं रोक सकता। इस चुनाव में कांग्रेस विधायकों की संख्या 2007 की तुलना में कम से कम ढाई गुनी हो जाने की संभावना स्पष्ट दिखाई पड़ रही है। उत्तर प्रदेश की राजनीति को जानने-समझने वाले पर्यवेक्षकों का कहना है कि अण्णा टोली के सदस्य इस चुनाव में कांग्रेस को मिलने वाली सफलता को आधा भी नहीं कर पाएंगे। 
हमने स्वयं पहले आम चुनाव (1952) से इस नौटंकी में दरी बिछाने का काम किया है- उस नाते जो कुछ भी कह रहे हैं, तीव्र पीड़ा के अहसास से कह रहे हैं। देश की   जनता राजनीति में सक्रिय भागीदारी की इच्छुक है, सामर्थ्य भर भागीदारी करती भी है। वह मतदान के माध्यम से विकल्प तलाशने का प्रयास करती है। लेकिन चुनाव समाप्त होते ही, सिर्फ आम जनता नहीं, संगठन के महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों तक की राजकाज-प्रशासन में कोई भूमिका नहीं बचती। प्रशासनिक तंत्र पर नीचे से ऊपर तक नौकरशाही का कब्जा है- जिस क्षण 'जन प्रतिनिधि' शासन में पद की शपथ लेता है उसी पल सरकारी कर्मचारी (छोटा या बड़ा) नेता का थैला कार्यकर्ता के हाथों से छीन लेता है। 
अधिकतर राजनीतिक निजी स्तर पर अपना और अपने नेता का भ्रष्ट और अनैतिक होना राजनीति में सफलता के लिए अनिवार्य मानते हैं। यह अत्यंत हताशाजनक स्थिति है और इस स्थिति को बदलना ही अण्णा टोली के सामने सबसे बड़ी चुनौती है।

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