Friday, January 13, 2012

सत्ता मिलने के बाद भी सरलता नहीं गयी आमोलिना की

सत्ता मिलने के बाद भी सरलता नहीं गयी आमोलिना की

Home » मोहल्ला रांचीरिपोर्ताजसंघर्ष

सत्ता मिलने के बाद भी सरलता नहीं गयी आमोलिना की

18 DECEMBER 2011 ONE COMMENT
[X]
Click Here!

♦ अनुपमा

स्थानीय बोली की मिलावट के साथ फटाफट-धड़ाधड़ हिंदी में बोलती हैं आमोलिना सारम। उनके चेहरे पर उपजा भाव उनके आत्मविश्वास को दिखाता है। कुछ करने की बेचैनी और जिज्ञासा जनता के प्रति उनकी निष्ठा को। वह और मुखिया की तरह चमचमाती बोलेरो के आगे मुखिया लिखवा कर सड़कों पर धूल उड़ाती नहीं चलती। पैदल उन्हें गांव-गांव घूमते हर रोज देखा जा सकता है। आमोलिना के बारे में जो बातें पहले से जानकारी दी गयी थी, उनसे और उनके बारे में लोगों से बातचीत होने पर एक नयी धारणा बनती है। हमें बताया गया था कि आमोलिना सारम वह महिला है, जिन्हें चुनाव लड़ने के पहले पेंच-दर-पेंच का सामना करना पड़ा था। पेंच इतने फंसाये गये थे कि उन्हें मानसिक तौर पर तोड़ देने की पूरी कोशिश की गयी थी। और जब तमाम पेंचों से निकल कर वह पंचायत की मुखिया बनीं, तो टूटने के बजाय मजबूती से एक मिसाल के रूप में सामने आयीं।

आमोलिना आदिवासी ईसाई हैं। उनके पति युनूस अंसारी मुसलमान। आमोलिना झारखंड में होनेवाले पहले पंचायत चुनाव में उतरने का मन पहले से ही बना चुकी थीं लेकिन जब उन्‍होंने इस दिशा में पहला कदम ही बढाया, तो उनके कुछ प्रतिद्वंद्वियों ने नामांकन से पहले जातिगत पेंच फंसा दिया। आमोलिना जिस पंचायत से जीती हैं, वह लोहरदगा जिले के किस्को प्रखंड का नवाडीह पंचायत है। यहीं से वो मुखिया चुनी गयी हैं। यह सीट अनुसूचित जनजाति व महिला आरक्षित सीट थी। निर्वाचन आयोग में जब लोगों ने शिकायत की, तो पहले उन्हें नामांकन करने से ही रोक दिया गया। फिर उन्होंने डीसी व एसडीओ को ज्ञापन दिया और कहा कि आखिर मेरी जाति क्या है, यह आपलोग ही तय कर दीजिए। मैं आखिर कैसे जिंदगी जीऊंगी। मेरे पास कोई तो जाति होनी चाहिए। आखिर एक मुसलमान से शादी करना गुनाह है क्या? बाद में उन्हें कहा गया कि चूंकि आपने आदिवासी समाज में जन्म लिया है और यह मातृसत्तात्मक समाज है, इसलिए आपकी पहचान आदिवासी के रूप में ही है। सर्टिफिकेट मिलने के बाद उन्होंने नामांकन किया। घर-घर जाकर लोगों से वोट मांगने के बजाय आमोलिना ने यह बताना शुरू किया कि वोट कैसे डालते हैं। खुद के चुनने या नहीं चुनने का निर्णय मतदाताओं पर ही छोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि जिले में आमोलिना ने रिकार्ड मत हासिल किया। उन्हें मुखिया पद के लिए 10 वोट मिले। उनकी प्रतिद्वंद्वी राजमुनी उरांव को 600 के करीब मत मिले।

आमोलिना कहती हैं, अब वह सब पुरानी बातें हुईं। मैं जानती थी कि मैंने खुद को समाज में, समाज के लिए खपाया है तो मुझे जीतने से कोई नहीं रोक सकता। अब जाति का पेंच फंसानेवालों का क्या किया जा सकता है? वह कहती हैं कि अब मैं पीछे मुड़कर नहीं देखती न देखना चाहती। मेरी चिंता यह है कि मेरे पास फंड नहीं है और काम इतना पड़ा है कि पूछिए मत। लोगों के पास उम्मीदों का सैलाब है और मेरे पास चुटकी भर संसाधन। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए। सिर्फ चुनाव कराने से नहीं होगा।

ऐसा नहीं कि आमोलिना सिर्फ यह सब बोलकर किसी सामान्य नेता की तरह लंबी-लंबी बातें करने और दूसरे पर दोष थोप अपनी नाकामियों को छुपा लेने की कला दिखा रही होती हैं बल्कि वह अहले सुबह से देर रात तक समस्या और समाधान की तरकीबों की दुनिया में रहती और जीती भी हैं। वह घर-घर और दफ्तर-दफ्तर जाकर समस्याएं सुनती हैं। यथासंभव दूर करवाने की कोशिश करती हैं। उनके आंख खोलने से पहले ही उनके घर पर आनेवालों का तांता लगना शुरू हो जाता है। हर सुबह आमोलिना के मिट्टी वाले छोटे खपरैल घर में जनता दरबार की तरह मजमा लगता है। वह बड़े धैर्य से एक-एक कर लोगों की समस्याएं सुनती हैं।

आमोलिना कहती हैं, मुझसे अपने दायरे में जितना संभव होता है, उतना करने की कोशिश कर रही हूं लेकिन मुझे पता है कि बदलाव की कोशिशें पंचायत स्तर से ही कामयाब होगी और बिगड़ाव की गुंजाइश भी सबसे ज्यादा यहीं रहती है। वह कहती हैं कि मैं बचपन से ही आर्थिक और सामाजिक संघर्ष करती आयी हूं, आगे भी करती रहूंगी। लोग चुनाव जीतते ही गाड़ी और बॉडीगार्ड खोजने लगते हैं, पर मैं किसी से नहीं डरती और न कोई सुविधा खोजती हूं। मैं सिर्फ और सिर्फ काम में भरोसा करती हूं और इसीलिए मीलों पैदल ही निकल पड़ती हूं।

आमोलिना पहले नवा विहान में पढ़ाती थी। टीसीडीएस नाम की संस्था भी चलाती थी। लेकिन अब सिर्फ जनता के बीच समय देती हूं और जिन उम्मीदों के लिए चुनी गयी हूं, उसी पर ध्यान केंद्रित करती हूं। अब हमने कार्यकारी समिति का समूह भी बनाया है और और हर महीने की पांच तारीख को ग्रामसभा में बैठक होती है। यहीं तय होता है कि आगे क्‍या करना है। चुनाव के छह महीने बाद तक तो कोई पावर ही नहीं था लेकिन अब हमने अपने पंचायत के सभी वृद्धों को, विधवाओं और विकलांगों को चिन्हित कर उनके पेंशन की व्यवस्था करवा दी है। इसमें उन्हें 400 रुपये प्रति माह अब मिलेंगे तो थोड़ी सुविधा होगी उन्हें। केंद्र से 22 इंदिरा आवास बनवाने के लिए राशि देने की बात है, तो हमने ग्रामसभा से चयनित करवा कर लिस्ट भेज दी है। अब उनके लिए आवास आवंटित करवाऊंगी। आपदा प्रबंधन से दो लाख मिले थे, जिससे हमने चापानल, कुआं मरम्मती करवायी है। टीआरडीएस का जो फंड 4 लाख 84 हजार आया था, उससे पंचायत का समान खरीदा है। कुर्सी, टेबल, दरी, कंप्यूटर, आलमीरा आदि।

आमोलिना जो कहती हैं, वह कोरी बात भी नहीं होती। इस बार की बारिश में झारखंड में मनरेगा के तहत बने कुएं करीब-करीब भरभरा गये।

लेकिन उनके यहां बत्तीसों कुएं एक इंच भी नहीं धंसे। आमोलिना ने चार तालाबों से मनरेगा के तहत मिट्टी निकलवाने का काम करवाया। वह कहती हैं कि मैं मानती हूं कि मनरेगा सिर्फ टाइम पास रोजगार योजना नहीं बल्कि यह सृजन का भी बड़ा जरिया है। वही कोशिश कर रही हूं। अगर कुछ और फंड आये, तो मैं अपने पंचायत को आदर्श पंचायत के रूप में स्थापित कर दूंगी। यह वादा नहीं, दावा है।

नवाडीह पंचायत में नीनी, नवाडीह, नारी, दुरहुल सरना टोली आदि गांव हैं। इस पंचायत में साझा संस्कृति-धर्म वाले बाशिंदे हैं। उरांव, मुलमान, ईसाई, सरना, हिंदू सब हैं। इलाके में 4000 वोटर हैं। आबादी करीब 10,000 है। परिवार लगभग 2000 हैं। हालांकि नवाडीह में स्कूलों की संख्या तो आठ है लेकिन सड़कों के अभाव में बच्‍चों को कीचड़ से ही गुजर कर जाना पड़ता है। प्रखंड मुख्यालय जाना हो तो नदी-नाले पार करने पड़ते हैं। नवाडीह के एक स्कूल को जमीन नहीं मिलने के कारण दिक्कत हो रही है। साढ़े तीन लाख रुपये आये थे लेकिन लौट गये। यदि जमीन मिल जाती तो कक्षाएं, चापानल, शौचालय आदि बन पाता। मैं कोशिश करूंगी कि वह करवा दूं। जनता दबाव बनाती है, पर मेरे हाथ बंधे होने के कारण मैं कुछ नहीं कर पाती, जितना मुझे करना चाहिए। हम सवाल करते हैं, तो घर कैसे संभालती हैं? जवाब मिलता है थोड़ा उसके साथ भी समझौता करना पड़ता है। लेकिन इतनी व्यस्तता के बावजूद मैं घर का सारा काम करती हूं और आधा घंटा समय बच्चों को पढ़ाने में जरूर लगाती हूं। मैं गरीब परिवार से रही हूं। बचपन से ही संघर्ष किया है, परेशानियां झेली हैं।

आमोलिना की छोटी-छोटी मुश्किलें हैं लेकिन वह बड़े अभियान की तैयारी में भी लगी हुई हैं। उसने पाखर माइंस में मजदूरों की बहाली करवाने के लिए दबाव बनाना शुरू कर दिया हैं। वह कहती हैं, यहां हिंडालको 60 वर्षों से खनन कर रहा है। लेकिन किसी को काम पर नहीं रखा। हम चाहते हैं कि जो पत्तल, दातुन और लकड़ी बेचते हैं, उन्हें नौकरी मिले। जो आदिवासी लड़कियां भट्ठे में काम करती हैं या बेच दी जाती हैं, उनके लिए भी कुछ हो…

(झारखंड सरकार के मीडिया फेलोशिप के तहत लिखा गया लेख)

(अनुपमा। झारखंड की चर्चित पत्रकार। प्रभात खबर में लंबे समय तक जुड़ाव के बाद स्‍वतंत्र रूप से रूरल रिपोर्टिंग। महिला और मानवाधिकार के सवालों पर लगातार सजग। देशाटन में दिलचस्‍पी। फिलहाल तरुण तेजपाल के संपादन में निकलने वाली पत्रिका तहलका की झारखंड संवाददाता। उनसे log2anupama@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है।)

No comments: