Tuesday, 17 January 2012 11:48 |
अरविंद कुमार सेन साफ है कि दवा कंपनियों के दबाव में नौकरशाहों ने दवा मूल्य नियंत्रण की आड़ लेकर एमबीपी के रूप में नया फार्मूला गढ़ा है। बडेÞ पैमाने पर दवाओं के लिए एकसमान मूल्य तय करने के दूसरे खतरे भी हैं। मसलन, कैंसर समेत कई गंभीर बीमारियों की दवाएं चुनिंदा कंपनियां ही बनाती हैं। मुनाफा कम होने की आशंका के चलते दवा कंपनियां खास दवाओं का निर्माण बंद करके अपनी क्षमता का इस्तेमाल ज्यादा मुनाफे वाली दवाओं के उत्पादन में कर सकती हैं। दवाओं के मूल्य पर नियंत्रण रखने की हमारी नीति पूरी तरह दिशाहीन हो चुकी है। जरूरी दवाओं के दाम आसमान छूते जा रहे हैं, वहीं सेक्स-क्षमता और शारीरिक बदलावों से जुड़ी दवाएं भ्रामक प्रचार के सहारे पूरे बाजार पर कब्जा कर चुकी हैं। मूल्य नियंत्रण के सरकारी आदेश दवाओं के लागत-मूल्य के बजाय बाजार-मूल्य के आधार पर दवा कीमतें तय करते हैं। दवाओं के वितरण और खुदरा बाजार में सरकार का दखल नहीं के बराबर है। अचरज नहीं होना चाहिए कि दस रुपए लागत वाली खांसी की दवा बाजार में सौ रुपए में बेची जाती है और हमारी सरकार सौ रुपए को आधार मान कर इस दवा की न्यूनतम कीमत तय करती है। कोई दवा जैसे ही मूल्य-नियंत्रण के दायरे में आती है, दवा कंपनियां चिकित्सकों को उसी श्रेणी की दूसरी दवा लिखने को कह देती हैं। दवाओं की लागत और बाजार-मूल्य के बीच पचास से अस्सी फीसद का फासला है और दवाओं के मामले में दुनिया में सबसे ज्यादा मुनाफा हमारे देश में ही कमाया जाता है। दवाओं की बढ़ती कीमतों पर मुहर लगाने की व्यवस्था भी सरकार ने कर रखी है। वास्तविक लागत पर ध्यान दिए बिना सरकार ने दवा मूल्य नियंत्रण कानून के दायरे से बाहर रहने वाली दवाओं की कीमतों में भी सालाना दस फीसद बढ़ोतरी की छूट दे रखी है। दवा कंपनियों की लूट पर सरकारी मोहर का यह दूसरा नमूना है, क्योंकि दवा कंपनियां हर साल बढ़ती महंगाई का वास्ता देकर दवाओं की कीमतें दस फीसद बढ़ा देती हैं। मंदी के बावजूद दवा कंपनियों के मुनाफे का मार्जिन 2008-09 के 6.91 फीसद से बढ़ कर 2010-11 में 13.16 फीसद हो गया है। नई नीति के मसविदे के मुताबिक तीन रुपए से कम औसत मूल्य वाली दवाओं की कीमत पर सरकार कोई नियंत्रण नहीं रखेगी। ऐसे में तनाव, मधुमेह और अपच जैसी बीमारियों से जुड़ी कई दवाएं मूल्य नियंत्रण से बाहर हो जाएंगी। लिहाजा, सरकार उच्चतम न्यायालय में सभी जरूरी दवाएं प्रस्तावित नीति के दायरे में होने का दावा करके न्यायालय और देश की जनता को भ्रम में रखने की कोशिश कर रही है। एक ओर सरकार दवाओं की कीमतों पर लगाम कसने की बात कहती है वहीं गरीबों को मुहैया कराई जाने वाली मुफ्त दवाओं की आपूर्ति साल-दर-साल कम होती जा रही है। राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक अस्पतालों में मुफ्त दवा वितरण 1986-87 के 31.20 फीसद से गिर कर 2004 में 12.11 फीसद रह गया है। मूल्य-नियंत्रण कवायद के जरिए गरीबों को सस्ती दवाएं मुहैया कराने का वादा आधा सच है, क्योंकि देश की सत्तर फीसद आबादी दवाओं की कोई भी कीमत नहीं चुका सकती, या दूसरे शब्दों में, उन लोगों को मुफ्त दवाओं की जरूरत है। अर्थशास्त्री एके शिवकुमार का कहना है कि देश की एक चौथाई आबादी के पास किसी भी तरह की चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं। सरकार अगर वाकई गरीबों का भला करना चाहती है तो पूरे स्वास्थ्य-क्षेत्र में आमूलचूल सुधार करने होंगे, महज दवाएं उपलब्ध करा देने से राहत मिलने वाली नहीं है। कहा जा रहा है कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना में सरकार ने 2020 तक स्वास्थ्य क्षेत्र पर जीडीपी का तीन फीसद खर्च करने का फैसला किया है। हालांकि इस फैसले से विशाल आबादी वाले हमारे देश के स्वास्थ्य क्षेत्र में कोई बड़ा बदलाव नहीं आने वाला है, मगर लोग जिंदा रहने के लिए पहले से थोड़ा बेहतर संघर्ष कर पाएंगे। भारत की हालत स्वास्थ्य के मोर्चे पर बेहद दयनीय है। हमारी अस्सी फीसद आबादी स्वास्थ्य बीमा के दायरे से बाहर है और इसी दिशा में पहल करने की जरूरत है। हमारे देश में एक मरीज अपने चिकित्सा-खर्च का इकहत्तर फीसद दवाओं पर खर्च करता है। निजी कंपनियों के कंधे पर बंदूक रख कर निशाना साधने के बजाय सरकार को बीमार पड़ी सरकारी दवा कंपनियों में शोध और विकास पर निवेश करना होगा। सस्ती दरों पर उत्पादित दवाओं को सार्वजनिक वितरण प्रणाली और जन औषधि केंद्रों के जरिए आम जनता तक पहुंचाया जा सकता है। केरल और तमिलनाडु में यह तरीका सफलतापूर्वक आजमाया जा चुका है। दवा उत्पादन, भंडारण और वितरण से स्वास्थ्य क्षेत्र की एक बड़ी बीमारी दूर हो जाएगी। दुनिया में सबसे ज्यादा नर्स और चिकित्सक हर साल भारत से निकलते हैं, लेकिन गलत प्राथमिकताओं के चलते देश के नागरिक चिकित्सा के बुनियादी अधिकार से महरूम हैं। हमारे नीति-निर्धारक भूल जाते हैं कि अमेरिका में स्वास्थ्य के मुद््दे पर राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा जाता है और ब्रिटेन में हरेक नागरिक सरकारी खर्च पर स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल करता है। |
Wednesday, January 18, 2012
दवा नीति की बीमारी
दवा नीति की बीमारी
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