Wednesday, 25 January 2012 10:10 |
पुण्य प्रसून वाजपेयी पहुंच से कटरा दूर रहा तो कोई नेता भी इस गांव में नहीं पहुंचता। इसका असर कटरा बहादुर तहसील पर सीधा पड़ा। कभी घाघरा नदी के पानी से कटरा में नहर बनी जो अब सूख चुकी है। लेकिन इस नहर पर राजनीतिक पैसा आज भी खर्च होता है। सात महीने पहले ही कागज पर आठ लाख रुपए खर्च हुए, जिससे नहर में पानी आ जाए। लेकिन नहर का आलम यह है कि अब नहर शौचालय में तब्दील हो चुका है। जाहिर है, ऐसे में जमीन के नीचे से पानी निकाल कर सिंचाई होती है। गांव में बिजली रात में तीन से चार घंटे रहती है तो पानी के लिए लगी मोटर डीजल पर टिकी है, जिससे गांव के लोग डीजल खरीदने के लिए शहर जाकर मजदूरी करते हैं। इस तहसील में आने वाले छह गांव में कोई ऐसा गांव नहीं जहां पक्की सड़क हो। लेकिन इस बेबसी में भी गांधी परिवार के साथ खडेÞ होने का रुतबा कोई खोना नहीं चाहता है, इसलिए जब सवाल यह पूछा जाता है कि रायबरेली आकर भी प्रियंका गांधी गांव में क्यों नहीं आईं तो गांव वाले ठहाका लगाकर कहते हंै कि प्रियंका बिटिया की गाड़ी गांव की सड़क पर कैसे चलती, इसलिए वह शहर में ही मुंह दिखाकर लौट जाती है। लेकिन बिना मुंह देखे ही हम कांग्रेस को जिताकर मुंह दिखाई हर बार दे देते हैं। गांधी परिवार से यह प्रेम रायबरेली के बुनकरों में भी खूब है। केंद्र में देश के लिए बनाई गई कांग्रेस की कपड़ा नीति ने बुनकरों के हुनर को खत्म कर उन्हें मजदूर बना दिया। लेकिन कोई गिला-शिकवा गांधी परिवार से यहां के बुनकरों को भी नहीं है। राहुल गांधी के पैकेज का पैसा तो किसी बुनकर के पास अब तक नहीं पहुंचा है। लेकिन बुनकरों की हालत यह है कि कमोबेश हर घर में महिलाएं धागे को कात कर जोड़कर उसे रस्सी की तरह मोटा बनाती हैं। फिर रंगती हैं। बुनकर उस घागे से चारपाई बुनता है। एक किलो रस्सी बनाने के एवज में महज 40 रुपए मिलते हंै और महीने भर में कमाई हर दिन दस घंटे काम करने के बाद भी डेढ़ हजार रुपए पार नहीं कर पाती। मनरेगा यहां कागज पर भी नहीं पहुंचा है। तो हर दिन सौ रुपये कैसे कमाए जाते हैं, यह भी रायबरेली के गांववालों को नहीं पता। लेकिन शहरी रायबरेली का मिजाज थोड़ा अलग है। शहर में सीमेंट फैक्टरी से लेकर पेपर मिल और कपड़ा मिल से लेकर कार्पेट फैक्टरी तक है। करीब 23 उद्योग पहले से हैं और लालगंज में बन रही रेलवे कोच फैक्टरी पूरी होने को है। लेकिन रायबरेली का मिजाज इतना शहरी भी नहीं कि उघोग चलते रहें और गांव प्रभावित न हों। पावर प्लांट से निकलती राख अगर छह गांव की खेती चौपट करती है तो पेपर मिल और सीमेंट कारखाने से निकलते कचरे से दर्जनों गांव के सैकड़ो लोग सांस की बीमारी को गले की खराश मान कर जी रहे हैं। सफेद घूल से नहाए गांव के घरों को देखकर अगर सवाल प्रदूषण का करें तो उलट में गांधी परिवार के रुतबे तले हर कोई यह कहने से नहीं चूकता कि उनकी बदौलत उद्योग तो रायबरेली में आए। लेकिन लखनऊ की सरकार को भी तो कुछ करना चाहिए। और अब लालगंज की कोच फैक्टरी भी जब रोजगार देने को तैयार है तो फिर उससे प्रभवित किसानी की फिक्र क्या मायने रखती है। शायद इसीलिए गांधी परिवार रायबरेली छोड़ना नहीं चाहता और लखनऊ की सियासत रायबरेली को थामना नहीं चाहती, क्योंकि चुनाव के वक्त भी रायबरेली का आम वोटर तो प्रियंका गांधी को बिना देखे ही मुंह दिखाई देने को तैयार है। |
Thursday, January 26, 2012
रायबरेली को गांधी परिवार छोड़ना नहीं चाहता और लखनऊ थामना नहीं
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/16-highlight/9710-2012-01-25-04-42-25
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