Friday, 20 January 2012 10:09 |
शंकर शरण इसलिए अभी रुश्दी पर छाई चुप्पी से हमें अपने बुद्धिजीवियों की स्थिति पहचान लेनी चाहिए कि क्यों वे इस्लामी मांगों के आगे 'अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता' को ही हमेशा बलि चढ़ाते हैं। क्योंकि रुश्दी-विरोधी लोग हिंदूवादियों की तरह बयान-बहादुर नहीं, सचमुच के फासिस्ट हैं। वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, लोकतंत्र, मीडिया, अपनी छवि आदि किसी की परवाह नहीं करते। बल्कि उनकी छवि ही यह है कि वे किसी भी बात पर जिस किसी की जान ले सकते हैं। कहीं भी खून-खराबा, आगजनी कर सकते हैं। इसीलिए उनके फतवों, आह्वानों को सुन कर प्रगल्भ बौद्धिक भी ऐसे निर्विकार रहते हैं, मानो कुछ सुना ही न हो! वे अभेद्य मौन साध लेते हैं। उनके सारे मूल्य खो जाते हैं। फासीवाद के विरुद्ध सारा आक्रोश हवा हो जाता है। क्योंकि रुश्दी जैसे मामलों में सचमुच मुठभेड़ हो सकती है! इसलिए वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का थाना ही छोड़ कर चले जाते हैं। पुन: किसी सुरक्षित मामले पर ही लौट कर सुविधानुसार हथियार उठा लेते हैं। सच पूछिए, तो इसी रुश्दी विवाद का दूसरा रंग भी हो सकता था। अगर खुमैनी ने सेटेनिक वर्सेज को उपेक्षित कर दिया होता, और किसी हिंदूवादी ने रुश्दी की एक अन्य पुस्तक 'मिडनाइट चिल्ड्रन' पर बखेड़ा किया होता, तो हमारे बुद्धिजीवियों के जलवे ही कुछ और होते। इस पुस्तक में रुश्दी ने कथित रूप से राम-सीता पर कुछ कटाक्ष किए हैं। (हिंदुओं को भी रुश्दी के विरुद्ध भड़काने के लिए दिल्ली के शाही इमाम इसका हमेशा उल्लेख करते थे। तब उन्हें अपनी शक्ति पर्याप्त नहीं लगती होगी। अब इसकी जरूरत नहीं रही!) अगर नाराजगी इस पुस्तक पर हुई होती, तो उसी रुश्दी का कवच बन कर हमारे सेक्युलर वामपंथ ने अखबारों के पन्ने रंग दिए होते। जैसे, उन्होंने एमएफ हुसेन के लिए धर्म-पूर्वक सदा किया। उसी रुश्दी के लिए आज उत्साहपूर्वक टीवी चैनलों पर गर्मागर्म बहस चल रही होती, अगर विरोध 'मिडनाइट चिल्ड्रन' पर हुआ होता। पौराणिक शास्त्रों और भारतीय संविधान से लेकर गांधीजी के उद्धरणों से रुश्दी का जम कर बचाव किया जाता। यह काल्पनिक दावा नहीं है। हम देख चुके हैं कि हुसेन द्वारा हिंदू देवी-देवताओं की भद्दी पेंटिग बनाने पर हुए लोकतांत्रिक, कानूनी विरोध की भी कितनी थोक भर्त्सना की गई। उसी तर्ज पर रुश्दी के लिए भी दोहराया जाता कि लेखकीय स्वतंत्रता कितना बड़ा मूल्य है, भिन्न विचारों के प्रति सहिष्णुता कैसा सामाजिक धर्म है, जिसकी समझ (हिंदू) संप्रदायवादियों को नहीं है, आदि। इस तरह रुश्दी, तसलीमा, हुसेन, रामानुजन, सुब्रह्मण्यम आदि विविध प्रसंगों पर चुनी हुई चुप्पी और चुने हुए शोर-शराबे का एक सुनिश्चित ढर्रा पहचाना जा सकता है। हुसेन की पेंटिंगों और रामानुजन के लेख पर जैसे तर्क दिए जाते हैं, ठीक वही तर्क तसलीमा और रुश्दी के लिए अमान्य कर दिए जाते हैं। इसमें तथ्य, तर्क, जन-भावना, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि किसी भी आधार पर एकसमान रुख नहीं लिया जाता। रुख लिया जाता है यह देख कर कि किस समुदाय की भावना को चोट पहुंची है या किसे रोष हुआ है? अगर किसी ने 'गलत समुदाय' के नेताओं को क्रुद्ध कर दिया हो, तो वह कितना ही बड़ा लेखक, पत्रकार क्यों न हो- हमारे बुद्धिजीवी उसके लिए कुछ नहीं कर सकते! यह रवैया स्वयं बौद्धिक स्वतंत्रता के लिए कितना बड़ा खतरा हो सकता है, इसे अभी रहने दें। पर इस पक्षपाती मौन से हमारे देश में सामाजिक सद्भाव बुरी तरह प्रभावित होता है। ऐसी मुंहदेखी चुप्पी से ही विभाजनकारी तत्त्वों को मौका मिलता है कि वे मजहब या भावना के नाम पर लोगों को बरगलाएं। क्योंकि राजनीतिक-बौद्धिक वर्ग ने दोहरे पैमाने बना लिए हैं। इस दोहरेपन से किसी समुदाय में अहंकार तो किसी में भेद-भाव झेलने का घाव उभरता है। आम जनों की दृष्टि उनसे कम पैनी नहीं होती जो सुखदायक सभागारों में अपने चुने हुए मौन या शोर-शराबे के लिए सुविधाजनक दलीलें पेश करते रहते हैं। वे दलीलें किसी को संतुष्ट नहीं करतीं। दलीलें देने वाले भी असलियत जानते हैं। फिर भी स्वार्थी, राजनीतिक कारणों से वही सब दोहरा कर एक-दूसरे को झूठी शाबासी देते हैं। मगर भेदभाव भरी बातें कभी भी सामाजिक सद्भाव नहीं बढ़ा सकतीं। इसलिए जिन लेखकों, पत्रकारों को सचमुच सामाजिक सद्भाव और देश-हित की चिंता हो, उन्हें इस दोहरेपन का कड़ा विरोध करना चाहिए। आज सब मनुष्यों में समान अधिकार और समान व्यवहार की भावना तीव्र हुई है। अब मजहब, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि किसी भी आधार पर पक्षपात या दुराव पहले से अधिक चोट पहुंचाता है। आम जनों को चतुर दलीलों से कोई राहत नहीं मिलती। जितना अधिकार हुसेन को था, उतना ही रुश्दी को है। अगर इस पर हीला-हवाला किया जाता है तो सामुदायिक दूरी बढ़ती है। इसी प्रक्रिया में मुसलिम जनसमुदाय अपने कठमुल्ले नेताओं का स्थायी बंधक बना हुआ है। इसका सबसे बड़ा दोषी यहां का सेक्युलर-वामपंथी बुद्धिजीवी वर्ग है। |
Friday, January 20, 2012
सलमान रूश्दी पर मौन
http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/9311-2012-01-20-04-39-40
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