Friday, 13 January 2012 10:55 |
अभय मोर्य जनसत्ता 13 जनवरी, 2012: रूसी छायावाद के प्रमुख संस्थापकों में से एक दमित्री मिरिशकोव्सकी ने बीसवीं सदी के आरंभ में एक अत्यंत सनसनीखेज बात कही: 'रूस का चेहरा तो पूर्व का है, पर वह मुड़ा हुआ है पश्चिम की ओर।' उन्होंने आगे लिखा: 'पश्चिम तो परायों की भूमि है। पूर्व हमारी मातृभूमि है... रूस का चेहरा लहूलुहान है। पश्चिम द्वारा अनेक बार उसके ऊपर थूका और उसे पावों तले रौंदा गया है।' अब रूस में क्या हो रहा है? बेशक, वहां काफी सुगबुगाहट है। पर वहां लोग इसलिए उद्वेलित नहीं हुए कि उनकी आर्थिक हालत बद से बदतर हो गई है। असल में येल्त्सिन काल यानी 1990 के दशक में अधिकतर लोगों के लिए भूख से मरने तक की नौबत आ गई थी। इसके ऐन विपरीत पुतिन काल में रूस की जनता के जीवन-स्तर में काफी सुधार हुआ है। सबसे निचले तबके के लोगों की हालत तेजी से सुधरी है। स्कूलों के अध्यापक, पेंशन पाने वाले लोग और अन्य कमजोर वर्गों के नागरिक अब सुख-चैन की जिंदगी बसर करने लगे हैं। मध्यवर्ग पिछले दशक में दस फीसद से बढ़ कर तीस फीसद तक पहुंच गया है। देश की वैज्ञानिक और रक्षा-क्षमता तेज रफ्तार से बढ़ी है। हर मापदंड पर देश में संतुलन और स्थायित्व आया है। पश्चिम इन तथ्यों को नकार नहीं सकता। और यह सब हुआ है उसी काल में जब अमेरिका और यूरोप में आए आर्थिक संकट ने सारी दुनिया को अपनी लपेट में ले लिया था। ऐसा नहीं कि आज रूस में सब कुछ ठीक-ठाक है। समस्याएं भी कम नहीं। देश की नौकरशाही में भ्रष्टाचार का बोलबाला है। उच्चाधिकारी और बडेÞ-बडेÞ धन्नासेठ अब भी देश के धन को पश्चिमी देशों में छिपाने से बाज नहीं आ रहे हैं। कृषि-क्षेत्र अब भी पिछड़ा है। पर समस्याएं आखिर किस देश में नहीं! येल्त्सिन और पुतिन कालों के रूस में जमीन-आसमान का फर्क है। आज रूस में वैसी गरीबी देखने को नहीं मिलती जैसी भारतीय उपमहाद्वीप में है। पुतिन की समस्याओं के दो मुख्य कारण हैं। पहला तो यह कि वह राजनीतिक दल ('यजीनाया रशिया'- एकताबद्ध रूस) जिसके अध्यक्ष पुतिन खुद हैं, बडेÞ-बडेÞ नेताओं का जमावड़ा मात्र है। उसके अधिकतर सक्रिय (वैसे उन्हें निष्क्रिय कहना चाहिए) सदस्य और नेता लोग पूर्व सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी के डूबते जहाज को छोड़ कर नए शासक वर्ग के 'रथ' पर छलांग लगा कर बैठने वाले तत्त्व हैं। ऐसे लोग केवल अपने प्रति वफादार होते हैं, वे केवल स्वयं-सेवा में विश्वास रखते हैं। न उन्हें देश से कुछ लेना-देना होता है, न अपने दल की नीतियों या कार्यक्रमों से। रूसी जनता 'यजीनाया रशिया' के ऐसे ही सदस्यों या नेताओं से खफा है, न कि खुद पुतिन से। पर पुतिन से जनता इतनी अपेक्षा अवश्य करती है कि वे अपने दल के भ्रष्ट सदस्यों की लगाम कसें, उन्हें देशहित में काम करने के लिए मजबूर करें। मास्को में रैली करने वाले तथाकथित पुतिन विरोधी तत्त्वों के बारे में क्या कहें! दरअसल, पश्चिम की समस्या भी यही है। उसे पुतिन का कोई विकल्प नजर नहीं आता। इसीलिए पुतिन काल में प्रचलित सारी जनतांत्रिक प्रक्रिया को संदिग्ध बताते हुए पुतिन पर शिकंजा कसना ही शायद संभव लगता है उन्हें। और कोई चारा नहीं। हां, पश्चिम ने रूस के वर्तमान राष्ट्रपति मेदवेदेव को पटाने की हर संभव कोशिश की, पुतिन और मेदवेदेव में गलतफहमी पैदा करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। कुछ समय तक तो लगा कि पश्चिम की यह चाल रंग ला रही है, मेदवेदेव जाल में फंस रहे हैं। पर अंततोगत्वा मेदवेदेव ने पुतिन के साथ अपना नया गठजोड़ घोषित कर दिया। इससे पश्चिम की आशाओं पर पानी फिर गया। अब पश्चिमी संचार माध्यम क्या करें? किस मोहरे पर बाजी लगाएं? क्या झिरिनोव्सकी पर? या कम्युनिस्ट ज्युगानोव पर? या फिर यव्लींस्की और बोरीस निम्त्सोव जैसे घोर प्रतिक्रियावादी नेताओं पर? कोई भी तो पुतिन का सानी नहीं लगता। इस बात का ज्वलंत प्रमाण देखने को मिला 24 दिसंबर, 2011 को मास्को में हुई काफी बड़ी रैली में। संख्या के लिहाज से इस रैली में अच्छा-खासा जनसमूह था। भाग लेने वालों की संख्या पचीस हजार से लेकर एक लाख तक बताई जा रही है। पर इस रैली में हुआ क्या? मास्को से प्रकाशित प्रसिद्ध समाचारपत्र 'मोस्कोव्स्की कॉम्सामोलेत्स' के शब्दों में यह रैली बेतुका नाटक-सा लग रही थी, जिसमें शायद मास्को का ऊबा हुआ युवा समुदाय राजनीतिक जोकरों की खिल्ली उड़ा कर मजा लूटने आया था। व्लादीमिर रइश्कोव और बोरीस निम्त्सोव जैसे नेताओं, ब्लॉग किंग अल्क्सेइ नवाल्नई, लेखक बोरिस अकूनिन, पत्रकार ओल्गा रमानोवा, खेल टीकाकार वसीलि ऊत्किन, संगीत आलोचक त्रईत्सकी, कवि दमित्री बईकोव जैसे सभी सतरंगी वक्ताओं को भीड़ ने बुरी तरह चिल्ला कर चुप करवा दिया। न किसी की बात सुनाई पड़ रही थी और न कोई किसी को सुनना चाहता था। पूरा तमाशा यों ही बिखर गया। 'निजावीसिमाया गजेता' (स्वतंत्र समाचारपत्र) नामक अखबार ने चुस्की लेते हुए लिखा: 'सखारोव मार्ग पर एकत्रित हुआ हजारों लोगों का यह बड़ा हुजूम किसी की गिरफ्तारी के बिना समाप्त हो गया! प्रदर्शनकारियों के बीच का विरोधाभास तब और खुल कर सामने आ गया जब श्रोताओं ने हर वक्ता को चिल्ला-चिल्ला कर चुप करा दिया। पर खुदा का लाख-लाख शुक्र कि पुलिस का व्यवहार बहुत सराहनीय रहा!' पर इस सबको लेकर पुतिन के मन में लड््डू नहीं फूटने चाहिए। बल्कि उन्हें शायद गंभीर आत्ममंथन करना चाहिए। उन्हें तेजी से काम करने और लोगों से दो टूक बात करने की अपनी मौलिक शैली को फिर से बहाल करना चाहिए। रूस में जो त्रुटियां या विकृतियां आई हैं उन्हें तेजी से सुधारने की आवश्यकता है। विदेशी बैंकों में पडेÞ धन को वापस लाने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार के विरुद्ध एक व्यापक युद्ध छेड़ने की सख्त जरूरत है। बिरिजोव्सकी, अब्रामोविच, गुसीन्स्की जैसे सभी ठगों पर अगर शिकंजा कसा जाए तो जनता बहुत खुश होगी। तब पुतिन को कोई चाहे कुछ भी कहे। |
Friday, January 13, 2012
पुतिन से नाराजगी का राज
पुतिन से नाराजगी का राज
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