Monday, January 9, 2012

दागियों की शरणस्थली

दागियों की शरणस्थली


आनंद प्रधान जनसत्ता 9 जनवरी, 2012: भारतीय जनता पार्टी को दाग अच्छे लगने लगे हैं। पार्टी के आशीर्वाद से इन दिनों उत्तर प्रदेश की राजनीति में दागियों की चांदी हो गई है। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले भ्रष्टाचार के आरोपों में बहुजन समाज पार्टी से निकाले गए बाबू सिंह कुशवाहा सहित कई पूर्व मंत्रियों और विधायकों के लिए भाजपा ने अपने दरवाजे खोल दिए हैं। इन दागी मंत्रियों, विधायकों और नेताओं को न सिर्फ ससम्मान भाजपा में शामिल कराया जा रहा है बल्कि उनमें से अधिकतर को पार्टी टिकट से भी नवाजा जा रहा है। इनके अलावा बलात्कार से लेकर रिश्वत खाकर संसद में सवाल पूछने के दोषी नेताओं के नाम भी भाजपा के उम्मीदवारों की सूची में शामिल हैं। 
भाजपा के इस फैसले ने उसके बहुतेरे समर्थकों को स्तब्ध कर दिया है, विश्लेषकों को चौंका दिया है और ये सभी हैरानी जाहिर कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि जो पार्टी खुद को अपने 'चाल, चरित्र और चेहरे' के आधार पर सभी पार्टियों से अलग (पार्टी विद डिफरेंस) बताती रही है और 'भय, भूख और भ्रष्टाचार' के खिलाफ लड़ने का नारा लगाते नहीं थकती, वह दूसरी पार्टियों से भ्रष्टाचार के आरोपों में निकाले गए लोगों को थोक के भाव में अपने पाले में क्यों शामिल कर रही है? सवाल यह भी उठ रहा है कि जो भाजपा दूसरी पार्टियों के दागियों के मुद्दे पर आसमान सिर  पर उठाए रहती है, और रामराज्य और सुशासन का दम भरती रहती है, वह किस मुंह से इन दागियों का बचाव कर रही है? दूसरी पार्टियों के दागी भाजपा में आकर पार्टी के लिए तिलक कैसे बन जाते हैं? 
मजे की बात यह है कि भाजपा नेता किरीट सोमैया ने सिर्फ चार दिन पहले जिन बाबू सिंह कुशवाहा को उत्तर प्रदेश में दस हजार करोड़ रुपयों से अधिक के बहुचर्चित राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन घोटाले का सूत्रधार बताया था और जो सीबीआई जांच के घेरे में हैं, उन्हें भाजपा ने ससम्मान पार्टी में शामिल कर लिया। लेकिन कुशवाहा अकेले दागी नेता नहीं हैं, जिनका भाजपा ने इस तरह बाहें फैला कर स्वागत किया है। ऐसे बसपाई मंत्रियों, विधायकों और नेताओं की तादाद अच्छी-खासी है जिन्हें उनकी चुनाव जीतने की काबिलियत के आधार पर पार्टी में शामिल किया गया है।
ऐसे नेताओं में मायावती सरकार के एक और पूर्व मंत्री बादशाह सिंह हैं, जिन्हें लोकायुक्त जांच में दोषी पाए जाने के कारण हटाया गया था। कुछ और मंत्रियों जैसे अवधेश वर्मा, ददन मिश्र आदि को भी मायावती ने ऐसे ही आरोपों में मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखा दिया। भाजपा ने इन सभी को हाथों-हाथ लिया है। कई और पूर्व बसपाई मंत्री, विधायक और सांसद कतार में हैं। थोक के भाव में दागियों को पार्टी में शामिल करने और उन्हें चुनावों में उम्मीदवार बनाने के फैसले की मीडिया और बौद्धिक हलकों में खूब आलोचना हुई है। यही नहीं, भाजपा के अंदर भी विरोध के इक्का-दुक्का स्वर उभरे हैं और अखबारी रिपोर्टों के मुताबिक, लालकृष्ण आडवाणी समेत कई वरिष्ठ नेता भी नाराज हैं।
लेकिन घोषित तौर पर पार्टी के प्रवक्ता और नेता भांति-भांति के तर्कों से इस फैसले को जायज ठहराने में जुटे हैं। पार्टी प्रवक्ता मुख्तार अब्बास नकवी के मुताबिक 'भाजपा वह गंगा है जिसमें कई परनाले गिरते हैं लेकिन उससे गंगा की निर्मलता पर कोई फर्क नहीं पड़ता है।' दूसरी प्रवक्ता निर्मला सीतारमन के अनुसार, 'यह फैसला किसी जल्दबाजी में नहीं बल्कि बहुत सोच-समझ कर लिया गया है। इसका उद्देश्य पिछड़ी खासकर अति पिछड़ी जातियों के नेतृत्व को आगे बढ़ाना है।' वरिष्ठ भाजपा नेता यशवंत सिन्हा को बाबू सिंह कुशवाहा में मायावती की भ्रष्ट सरकार के खिलाफ 'विसल-ब्लोअर' दिख रहा है।  
मगर भाजपा नेताओं और उनके समर्थक बुद्धिजीवियों को अहसास है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ बने देशव्यापी जनमत और राजनीतिक माहौल में पार्टी का मध्यवर्गीय आधार इस फैसले को पचा नहीं पा रहा है। उसकी बेचैनी को भांपते हुए टीवी-चर्चाओं में कई भाजपा नेता और बुद्धिजीवी मध्यवर्गीय जनमत को इस आधार पर आश्वस्त करने की कोशिश कर रहे हैं कि चूंकि ये दागी पार्टी में निचले स्तर के नेता हैं और रहेंगे और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व साफ-सुथरा है, इसलिए ये दागी पार्टी की नीतियों और सरकार को प्रभावित करने की स्थिति में नहीं हैं। इस फैसले का बचाव 'व्यावहारिक राजनीति के तकाजों' के आधार पर भी किया जा रहा है कि उत्तर प्रदेश में बसपा, सपा और कांग्रेस के माफिया और भ्रष्ट उम्मीदवारों से निपटने के लिए भाजपा को भी ऐसे तत्त्वों को मैदान में उतारना जरूरी है जो चुनाव जीत सकें। 
कहने की जरूरत नहीं कि भाजपा की इन दलीलों में कोई दम नहीं है। ये तर्क उसके चरम राजनीतिक अवसरवाद पर परदा डालने की कोशिश भर हैं। सच पूछिए तो भाजपा के इस फैसले पर हैरानी से अधिक हंसी आती है। भाजपा के लिए यह कोई नई बात नहीं है। पार्टी इस खेल में माहिर हो चुकी है। उसके लिए अवसरवाद अब सिर्फ रणनीतिक मामला भर नहीं है बल्कि उसके राजनीतिक दर्शन का हिस्सा बन चुका है। आश्चर्य नहीं कि भाजपा तात्कालिक राजनीतिक लाभ और सत्ता के लिए अपने घोषित राजनीतिक सिद्धांतों और


मूल्यों की बलि चढ़ाती आई है। 
भाजपा की राजनीति में बाबू सिंह कुशवाहा प्रकरण कोई पहली घटना नहीं है। नब्बे के दशक में कांग्रेसी नेता और तत्कालीन संचारमंत्री सुखराम के भ्रष्टाचार पर कार्रवाई की मांग को लेकर भाजपा ने तेरह दिन तक संसद नहीं चलने दी थी। लेकिन हिमाचल प्रदेश में सत्ता के लिए उन्हीं   सुखराम से हाथ मिलाने में उसे कोई संकोच नहीं हुआ। इसी तरह, यूपीए सरकार के मंत्री शिबू सोरेन को दागी बता कर मंत्रिमंडल से निकालने की मांग को लेकर भाजपा ने संसद के अंदर और बाहर खूब हंगामा किया। लेकिन झारखंड में जोड़-तोड़ करके उन्हीं शिबू सोरेन के साथ वह सत्ता की मलाई चाट रही है। 
भाजपा ने उत्तर प्रदेश में पहले कल्याण सिंह के नेतृत्व में दलबदलुओं, भ्रष्टाचारियों और आपराधिक पृष्ठभूमि वाले विधायकों के साथ सबसे बड़ा मंत्रिमंडल बना कर और फिर मायावती के नेतृत्व में बसपा के साथ सत्ता की साझेदारी करके राजनीतिक अवसरवाद का नया रिकार्ड बनाया। भाजपा के राजनीतिक इतिहास में ऐसी मौकापरस्ती की एक पूरी शृंखला है। कर्नाटक में पार्टी ने खनन माफिया के बतौर कुख्यात रेड््डी बंधुओं की बगावत के बाद उनके आगे घुटने टेक दिए और बाद में भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों में फंसे येदियुरप्पा ने भी भाजपा नेतृत्व की पूरी फजीहत कराने के बाद ही इस्तीफा दिया।
आज भ्रष्टाचारियों, अपराधियों और धनबलियों को राजनीतिक संरक्षण देने में भाजपा किसी भी पार्टी से आगे दिखती है। पार्टी में ऐसे तत्त्वों की पैठ बहुत गहरी हो चुकी है। यह कहना एक छलावा है कि भाजपा का शीर्ष नेतृत्व बहुत साफ-सुथरा है और इसलिए निचले स्तर पर ऐसे भ्रष्ट, अपराधी, अवसरवादी तत्त्वों के होने से कोई फर्क नहीं पडेÞगा। 
भाजपा के नेता भले स्वीकार न करें, लेकिन तथ्य यह है कि इन भ्रष्ट और अपराधी तत्त्वों के आगे शीर्ष नेतृत्व पूरी तरह से लाचार हो चुका है। उसकी लाचारी का इससे बड़ा सबूत और क्या होगा कि आडवाणी से लेकर सुषमा स्वराज तक और उमा भारती से लेकर आरएसएस की कथित नाराजगी के बावजूद पार्टी बाबू सिंह कुशवाहा और अन्य दागियों को निकालने के लिए तैयार नहीं है? क्या यह संभव है कि पार्टी के शीर्ष नेता और यहां तक कि आरएसएस भी जिस फैसले से नाराज हो, उसे पलटना इतना मुश्किल हो? यह तभी संभव है जब या तो पार्टी के शीर्ष नेताओं की कथित नाराजगी सिर्फ सार्वजनिक दिखावे के लिए हो या फिर उन्होंने ऐसे तत्त्वों के आगे घुटने टेक दिए हों। 
भाजपा और उसके शीर्ष नेताओं के लिए ये दोनों ही बातें सही हैं। असल में, वे गुड़ भी खाना चाहते हैं और गुलगुले से परहेज का नाटक भी करते हैं। दरअसल, एक राष्ट्रीय पार्टी के बतौर भाजपा की राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता जैसे-जैसे उजागर होती जा रही है, उसके लिए सत्ता, साधन के बजाय साध्य बनती जा रही है। जब सत्ता ही साध्य बन जाए तो उसे हासिल करने के लिए पार्टी को कोई भी जोड़-तोड़ करने, किसी भी तिकड़म का सहारा लेने और भ्रष्ट-अपराधी तत्त्वों के साथ गलबहियां करने में कोई संकोच नहीं रह गया है। इसलिए उत्तर प्रदेश में जो रहा है, वह भाजपा के इसी राजनीतिक-वैचारिक स्खलन से पैदा हुए अवसरवाद का नया मुकाम है। 
इसमें दो राय नहीं कि यह राजनीतिक-वैचारिक दरिद्रता एक ऐसी सर्वव्यापी और सर्वग्रासी परिघटना बन चुकी है जिससे सत्ता के खेल में शामिल कोई भी पार्टी अछूती नहीं बची है। हैरानी की बात नहीं कि दागी तत्त्व एक से दूसरी, दूसरी से तीसरी और तीसरी से चौथी पार्टी में प्रवेश, सम्मान और निर्णायक मुकाम हासिल करने में आसानी से कामयाब हो जाते हैं। एक पार्टी के लिए दागी, दूसरे के लिए राजनीतिक सफलता की कुंजी है। यहां तक कि यह मान लिया गया है कि यही व्यावहारिक राजनीति है और व्यावहारिक राजनीति विचार, सिद्धांत और मूल्यों से नहीं चलती। मतलब यह कि इसमें अगर आप सफल हैं तो सब कुछ जायज है।  
भाजपा के साथ खास बात यह है कि वह राजनीतिक नैतिकता, शुचिता और सदाचार की जितनी ही अधिक डींग हांकती है, उतने ही धड़ल्ले से उनकी धज्जियां भी उड़ाती है। इसमें उसे कोई संकोच या असुविधा महसूस नहीं होती। इस मामले में उसकी ढिठाईका शायद ही कोई और पार्टी मुकाबला कर पाए। असल में, भाजपा जिस उग्र हिंदुत्व और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की वैचारिकी पर आधारित राजनीति करती है, उसमें उसके पास दागियों को हिंदुत्व और राष्ट्रवाद के मुखौटे के पीछे छिपाने की अवसरवादी सुविधा है। यह 'सुविधा' किसी और पार्टी के पास नहीं है।
सैमुएल जॉनसन ने कहा था कि 'राष्ट्रवाद और देशभक्ति लफंगों की आखिरी शरणस्थली होती है।' भ्रष्ट-अपराधी और दागी तत्त्वों को भाजपा इसीलिए बहुत आकर्षित करती है। ऐसे तत्त्व भाजपा में आकर न सिर्फ राष्ट्रवाद और हिंदुत्व के झंडे के नीचे अपने सभी पापों को ढंकने-छिपाने में कामयाब हो जाते हैं बल्कि बडेÞ आराम से अपने काले कारोबार को भी जारी रख पाते हैं। जाने-अनजाने मुख्तार अब्बास नकवी ने भाजपा की गंगा से तुलना करते हुए हिंदुत्व के प्रतीक का ही इस्तेमाल किया। भाजपा की राजनीति की यही असलियत है। लेकिन हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की संकीर्ण और घृणा आधारित राजनीति से और उम्मीद भी क्या की जा सकती है!

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