Wednesday, December 14, 2011

मेट्रो में बदलते महानगर पलाश विश्वास

मेट्रो में बदलते महानगर

मेट्रो से बदला शहरों का नजारा

 
 
हमारी पीढ़ी के लिए यह परिदृश्य हजम करना जरा मुश्किल है कि भविष्य के नागरिक, समाज और राजनीति का ढांचा आखिर कितना बदलेगा और हम उन्हें कैसे झेलेंगे।
पलाश विश्वास
महानगर राजधानी क्षेत्र दिल्ली, बेंगलुरू या मुंबई में जो परिवर्तन अनायास हो रहे हैं, उसे कस्बाई मानसिकता का का कोलकाता, अनायास आत्मसात नहीं कर सकता। विदर्भ में किसानों की आत्महत्याओं के मद्देनजर नागपुर में भी यह परिवर्तन सहज स्वीकार्य शायद न हो। चेन्नई, हैदराबाद या लखनऊ अपनी-अपनी सांस्कृतिक विरासत की वजह से इसके लिए भले ही तैयार न हों, पर अहमदाबाद, मेरठ, देहरादून गुवाहाटी, जयपुर पुणे और तिरुवनंतपुरम में बदलाव की आहटे मालूम पड़ती हैं।
भविष्य के संकेत साफ हैं- मोबाइल के बाद अब इंटरनेट के जरिए पूरी भारतीय आबादी का ग्राम भारत से महानगरीय भारत में स्थानांतरण अब सिर्फ समय की प्रतीक्षा है। रोबोटिक्स भी अब तब्दील होने लगा है। महानगर अब सिर्फ नई दिल्ली, कोलकाता, मुंबई और चेन्नई में सीमाबद्ध नहीं होंगे। पंजाब और पश्चिम उत्तर प्रदेश में महानगरीय संस्कृति का बोलबाला देखा जा सकता है। पंतनगर, रुद्रपुर और सिंगूर जैसे महानगर भविष्य के गर्भ में हैं। क्रेता और उपभोक्ता में बंटे समाज से डील करना है भविष्य की पीढ़ियों को। बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक दौर सामने हैं। ऐसे में तकनीकी विकास ही समाज और अर्थव्यवस्था की मंजिल बन जाएं, तो बदलते लैंडस्केप और ह्मूनस्केप के साथ-साथ सोच, राजनीति और साहित्य संस्कृति में बदलाव आना लाजिमी है। वे बदलाव आ ही रहे हैं- चाहे हम पसंद करें या न करें।
नई दिल्ली की नागरिक गतिविधियां, आर्थिक क्रियाएं-प्रतिक्रियाएं मेट्रो नेटवर्क में स्थानांतरित हो रही हैं। नई दिल्ली तो अब सिर्फ राजनीतिक व्यवस्था का नाम है। इसी तरह कोलकाता में बीबीडी, बाग- धर्मतल्ला, पार्क स्ट्रीट, श्याम बाजार या बालीगंज के बजाय राजारहाट, साल्टलेक कल्याणी हाईवे, बागुइहाटी, भागंड़, उलूबेड़िया और सिंगूर में धड़कने लगा है महानगर। मुंबई में नवी मुंबई है, तो बेंगलूर तुमकूर तक विस्तृत है। भारत में इस वक्त मोबाइल के लगभग तीस करोड़ ग्राहक हैं। पांच साल में इंटरनेट के भी करीब इतने ही ग्राहक हो जाएं, तो क्या तब भी हम बीसवीं सदी के आगोश में 'कोमा' में कैद रहेंगे?
दिल्ली में मेट्रो दौर में निजी वाहनों का प्रचलन है। उप्र के शहरों में स्कूटरों का रिवाज सत्तर के दशक से है। फिर मारुति प्रचलन में आई और अब नैनो है। कोलकाता में नब्बे के दशक तक ट्रैफिक जाम मुख्य समस्या थी। अब सारी सड़के एकमुखी हैं फिर भी सार्वजनिक परिवहन सस्ता होने के कारण अन्य नगरों-महानगरों के मुकाबले कोलकाता में निजी वाहनों का प्रचलन कम है। जिनके निजी वाहन हैं, वे भी सार्वजनिक परिवहन पसंद करते हैं, पर कोलकाता के उपनगरों, खास तौर पर साल्टलेक या ईएम बाईपास में निजी वाहन के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अब गांवों में गोबर नहीं मिलता। ढोर-डंगर नदारद है। खेती टैक्टर से होती है। गांवों में बहुमंजिली इमारतें, कंप्यूटर और कारें हैं। कोलकाता से कल्याणी के बीच बसे गांवों का नजारा भी बदल रहा है, जहां आप शहर और गांव दोनों के मजे ले सकते हैं। महानगरीय आबादी अब इन्हीं इलाकों में स्थानांतरित हो रही है। हम सहमत हों या न हों, हम चाहे प्रतिरोध करें या न करें, परिवर्तन की सूनामी चालू है।
(संपादित लेखांश 'युवा संवाद' से साभार)

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