Friday, November 18, 2011

मुसीबत की फसल

http://www.jansatta.com/index.php/component/content/article/20-2009-09-11-07-46-16/4349-2011-11-18-04-48-52

सुनील 
जनसत्ता, 18 नवंबर, 2011 : भारत में किसानों की खुदकुशी के आंकडे़ फिर आए हैं। पिछले सोलह वर्षों में देश में ढाई लाख से ज्यादा किसान खुदकुशी कर चुके हैं। यह साफ है कि भारत के किसान एक अपूर्व संकट से गुजर रहे हैं। हमारी सरकारें और उनकी नीतियां और योजनाएं उन्हें इस संकट से उबारने में बुरी तरह विफल रही हैं। ऐसी ही एक योजना फसल-बीमा की है, जिसका घोषित मकसद फसल नष्ट होने की दशा में क्षतिपूर्ति करना और किसान की मदद करना है। लेकिन लगातार हो रही किसानों की आत्महत्याओं से कृषि बीमा की विफलता जाहिर है। 
वैसे तो भारत में फसल बीमा के प्रयोग काफी समय से चल रहे हैं। मगर 1999-2000 की रबी फसल से राष्ट्रीय कृषि बीमा योजना व्यापक रूप से शुरू हुई, जिसका क्रियान्वयन भारतीय कृषि बीमा कंपनी नामक एक सरकारी कंपनी कर रही है। इस योजना के अंतर्गत एक क्षेत्र के अंदर फसल की पैदावार एक सीमा से कम होती है तो बीमे का लाभ किसानों को मिलता है। मगर इस योजना के बारे में किसानों को कई शिकायतें हैं। सबसे बड़ी समस्या इसकी इकाई है। ज्यादातर फसल के नुकसान का आकलन तहसील या तालुका स्तर पर होता है। अगर फसल का नुकसान पूरी तहसील में न होकर उसके एक हिस्से में होता है, तो बीमे का लाभ नहीं मिलता है। 
किसानों की सबसे बड़ी शिकायत इस योजना के अनिवार्य और अस्वैच्छिक होने के बारे में है। जो भी किसान बैंक या सहकारी संस्था से ऋण लेता है, उससे बिना पूछे अनिवार्य रूप से प्रीमियम काट लिया जाता है। उसे कोई जानकारी या रसीद या पॉलिसी का कागज भी नहीं दिया जाता। पश्चिम ओड़िशा में तो किसानों ने जबरन की जा रही बीमा प्रीमियम वसूली को 'जजिया कर' का नाम दे रखा है।
भूमंडलीकरण की बयार के साथ कृषि बीमा के क्षेत्र में भी विदेशी कंपनियां घुसी हैं और नए-नए प्रयोग हो रहे हैं। ऐसा ही एक प्रयोग मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले में हुआ। खरीफ में सोयाबीन यहां की प्रमुख फसल है। इस वर्ष लगातार बारिश के कारण यहां सोयाबीन की फसल में पहले पीला मोजेक रोग और बाद में तंबाकू इल्ली लगने से काफी नुकसान हुआ है। इसी के सदमे में वहां 11 से 14 अक्तूबर के बीच चार दिन में तीन किसानों ने आत्महत्या कर ली। जब संकटग्रस्त किसानों ने फसल-बीमा के बारे में पूछताछ की तो पता लगा कि पुरानी योजना के स्थान पर नई 'मौसम आधारित फसल बीमा योजना' वहां लागू कर दी गई है। 
इस योजना के तहत होशंगाबाद जिले में सोयाबीन फसल के लिए 49,175 किसानों से बीमा प्रीमियम काटा गया था। कुल बीमित राशि 222 करोड़ रुपए की थी, जिसके लिए दो निजी कंपनियों को दस प्रतिशत यानी 22 करोड़ 20 लाख रुपए का प्रीमियम मिला था। इस प्रीमियम में किसानों से 7 करोड़ 77 लाख रुपए लिया गया था और बाकी प्रदेश और केंद्र सरकार का अनुदान था। पर सोयाबीन की फसल का व्यापक नुकसान होने के बावजूद कंपनियों ने 222 करोड़ की बीमा-राशि में से मात्र 17 करोड़ 15 लाख रुपए के क्षतिपूर्ति-भुगतान का हिसाब लगाया। यानी प्रीमियम राशि में से भी 5 करोड़ 5 लाख रुपए उन्होंने बचा लिए। दरअसल, इस मौसम-बीमा के नियम, शर्तें और फार्मूले सरकारी अफसरों के साथ मिल कर चालाकी से इस तरह बनाए गए हैं कि असामान्य वर्षों में भी कंपनी को मामूली राशि ही देना पड़े।
इस जिले में मौसम आधारित फसल-बीमा में पिछली रबी फसल में भी निजी बीमा कंपनी ने काफी कमाई की। गेहूं फसल के लिए उसे 15 करोड़ 73 लाख रुपए का प्रीमियम मिला, मगर उसने मात्र 85 लाख रुपए का भुगतान किसानों को किया। चने की फसल के लिए 1 करोड़ 44 लाख का प्रीमियम मिला, पर मात्र 26 लाख रुपए की राशि उसे किसानों को देनी पड़ी। यह सही है कि ये फसलें सामान्य थीं, इसलिए किसानों को ज्यादा मुआवजा देने की जरूरत नहीं पड़ी। 
मगर क्या इतनी बचत जायज है? और यह कैसी बीमा योजना है जिसमें सामान्य हालत और बड़ी आपदा, दोनों स्थितियों में कंपनियां मोटी कमाई कर रही हैं? किसान तो मर रहा है और बीमा कंपनियां भारी मुनाफा बटोर रही हैं। रबी और खरीफ की इन तीन फसलों को मिला कर इन निजी बीमा कंपनियों ने एक ही जिले से एक ही वर्ष में इक्कीस करोड़ रुपए से ज्यादा की कमाई कर ली है।
ये दोनों बीमा कंपनियां दो विदेशी बीमा कंपनियों द्वारा भारतीय साझीदारों के साथ बनाए गए गठजोड़ हैं- इफको-टोकियो जनरल इंश्योरेंस कंपनी और आईसीआईसीआई-लोम्बार्ड इंश्योरेंस कंपनी। फसल बीमा के क्षेत्र में सक्रिय अन्य कंपनियां एचडीएफसी-अरगो और चोलामंडलम-एमएस भी इसी तरह की हैं। 
भारत के बीमा व्यवसाय में वर्तमान में विदेशी कंपनियों को छब्बीस फीसद से ज्यादा शेयरधारिता की इजाजत नहीं है। इसलिए उन्होंने भारतीय साझेदार बनाए हैं। इससे उन्हें भारत में अपने पैर जमाने और घुसपैठ करने में मदद मिलती है। जैसे इफको भारत में खाद बनाने वाली सहकारी कंपनी है, जिसकी पहुंच गांव-गांव में लाखों सहकारी संस्थाओं तक है। 
मौसम-बीमा जैसी योजनाएं भी पश्चिम से आई हैं और इन्हें लाने में विश्व बैंक की सिफारिशों का बड़ा योगदान रहा है। इस चक्कर में हमारे शासकों ने यह भी भुला दिया कि दोनों जगह परिस्थितियां काफी अलग हैं। वहां सैकड़ों और हजारों एकड़ के किसान और कंपनियां हैं, जबकि हमारे यहां दो-चार एकड़ के किसान बहुतायत में हैं। वहां की कृषि कंपनियां और बड़े किसान और संतुष्ट होकर स्वेच्छा से बीमा करवाते हैं,   पर हमारे विशेषज्ञों-नौकरशाहों ने ज्यादा होशियारी


दिखाते हुए इस बीमा को जबर्दस्ती किसानों पर थोप दिया है। 
इन बीमा कंपनियों के खिलाफ छल और धांधली की शिकायतें आम हैं। मसलन, होशंगाबाद जिले में पिछले वर्ष लोम्बार्ड कंपनी ने सरकारी मदद से रेशम मजदूरों का स्वास्थ्य बीमा किया था, पर उन्हें काफी समय तक स्वास्थ्य कार्ड नहीं मुहैया कराए और अस्पताल भी निर्धारित नहीं किया। इस जिले में स्कूल विद्यार्थियों के दुर्घटना-बीमा भी इनके माध्यम से हुए हैं, लेकिन दुर्घटना के शिकार तीस विद्यार्थियों में से एक को भी मुआवजा नहीं दिया और उस कंपनी को काली सूची में डालना पड़ा। 
विडंबना यह है कि ये सारी बीमा योजनाएं सरकार के अनुदान और सक्रिय सहयोग से क्रियान्वित हो रही हैं। जिस पीपीपी यानी 'सरकारी-निजी साझेदारी' का इतना हल्ला है और जो मोंटेक सिंह-मनमोहन सिंह का प्रिय नुस्खा है, उसकी जमीनी हकीकत की यह एक बानगी है। पैसा सरकार का, मुनाफा कंपनी का और नुकसान जनता का- यह पीपीपी का असली मतलब है। वैश्वीकरण के दौर में जालसाजी, ठगी और छल-कपट के मामलों में एकाएक बढ़ोतरी हुई है। अब्दुल करीम तेलगी और 'सत्यम' वाले रामलिंग राजू जैसों की सूची में इन बीमा कंपनियों, चिटफंड कंपनियों, निजी शिक्षण संस्थाओं और निजी अस्पतालों को भी जोड़ना चाहिए। फर्क यही है कि ये नए नटवरलाल सरकारी नियम-कायदों और नीतियों को अपने पक्ष में करवा कर जनता को लूट रहे हैं।
जब भारत के बीमा व्यवसाय को विदेशी कंपनियों के लिए खोला जा रहा था, तब समाजवादी चिंतक किशन पटनायक ने एक सवाल उठाया था। ये बीमा कंपनियां भारत के विकास में क्या योगदान देंगी? वे अपने देश से तो मामूली पूंजी लाएंगी। इसी देश के लोगों से प्रीमियम का पैसा इकट्ठा करेंगी और मुनाफा कमा कर अपने देश ले जाएंगी। यह जरूर है कि वे इस देश में नई-नई बीमा योजनाएं लाएंगी और बीमा व्यवसाय के विस्तार में सहयोग करेंगी। पर किसलिए? क्या आधुनिक बीमा व्यवसाय का यह अंधाधुंध विस्तार समाज में बढ़ते जोखिम की समस्या को हल कर पा रहा है ? एक व्यापक संदर्भ में उसकी उपयोगिता पर गहरे सवाल खड़े होते हैं।
एक उदाहरण लें। मोटर दुर्घटना का बीमा बहुत बड़ा धंधा बन चुका है। पर इन बीमा कंपनियों की ओर से कभी यह पहल नहीं होती कि मोटर दुर्घटनाओं को कम कैसे किया जाए। जोखिम कम करने के कोई उपाय करने के बजाय वे तो बस जोखिम का हिसाब लगा कर अपने प्रीमियम तय करती हैं और मुनाफा बटोरती हैं। जोखिम जितना बढ़ेगा, उतना ही धंधा बढ़ेगा- यह भी उनका नजरिया हो सकता है। खेती के जोखिम का भी सवाल इसी तरह का है। 
बहुत पहले से भारत की खेती को 'मानसून का जुआ' कहा जाता है। पर प्रगति के तमाम दावों के बावजूद यह जुआपन कम नहीं हुआ, बल्कि आधुनिक खेती के चलते कई नए तरह के जोखिम उसमें जुड़ गए। अब भारत का किसान मौसम के जोखिम के अतिरिक्त सरकारी तंत्र के जोखिम (समय पर खाद, बिजली या नहर का पानी न मिल पाना, समर्थन-मूल्य पर खरीदी न होना), आधुनिक टेक्नोलॉजी के जोखिम (भूजल स्तर नीचे जाना, कीटों में प्रतिरोधक शक्ति विकसित होना, मिट््टी की उर्वरता नष्ट होना, आधुनिक बीजों का कमजोर होना) और वैश्वीकृत होते बाजार के जोखिम (उपज का दाम कम हो जाना, लागतें बढ़ जाना, खाद-बीज नकली निकल जाना) भी झेल रहा है। खेती काफी महंगी, ज्यादा पूंजी और ज्यादा कर्ज वाली हो गई है, इसलिए फसल नष्ट होने पर किसान को ज्यादा बड़ा झटका लगता है। आधुनिक बीजों में मौसम के उतार-चढ़ाव, रोगों और कीटों को बर्दाश्त करने की शक्ति कम होती है, इससे भी जोखिम बढ़ा है। जबकि देशी बीज इस मायने में बेहतर थे। 
फसलों की विविधता नष्ट होने से भी जोखिम बढ़ा है। एक ही फसल होने से नुकसान व्यापक होता है। पारंपरिक ग्रामीण जीवन में किसानों के पास मवेशी, भेड़-बकरियां, मुर्गियां आदि भी हुआ करती थीं। वे भी मुसीबत के समय में एक तरह के बीमा का काम करती थीं। तब खेती, पशुपालन और कई अन्य धंधे मिले-जुले, परस्परावलंबित हुआ करते थे। अब विशिष्टीकरण के आधुनिक जमाने में सब अलग-अलग हो गए हैं और किसान ज्यादा बेसहारा हो गया है। 
इस तरह से खेती अब महज मानसून का नहीं, सरकारी तंत्र, टेक्नोलॉजी और बाजार का जुआ भी बन गई है। यही हालात किसानों की जान ले रहे हैं। विशेषज्ञ और अफसर महज मौसम पर आधारित बीमा से काम चलाने की सोच रहे हैं। पर खेती की इस दिशा को नहीं बदला जाएगा तो मात्र फसल-बीमा योजनाओं से किसानों का संकट दूर नहीं किया जा सकता।
यही बात स्वास्थ्य बीमा योजनाओं के बारे में लागू होती है। एक तरफ सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं को लगातार बिगाड़ा और उपेक्षित किया जा रहा है, स्वास्थ्य का बाजार तेजी से विकसित हो रहा है; दूसरी तरफ महंगे और मुश्किल होते इलाज की समस्या से ध्यान हटाने के लिए गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों के लिए एक आधी-अधूरी स्वास्थ्य बीमा योजना पेश कर दी जाती है। उसमें भी पीपीपी के नाम पर निजी अस्पतालों का लूट का धंधा चलने लगता है। 
माकूल गारंटी तो तभी हो सकती है जब सरकार पूरी जनता के लिए स्वास्थ्य सेवाओं का समुचित विस्तार करे और गारंटी ले, जैसा कि क्यूबा में है। एक तरह से ऐसी बीमा योजनाएं नवउदारवादी व्यवस्था में सरकारों को अपनी जिम्मेदारी से बचने की एक आड़ बन जाती हैं। मौसम आधारित फसल बीमा हो या गरीबों का स्वास्थ्य बीमा, यह एक   तरह से आधुनिक विकास, पूंजीवाद और भूमंडलीकरण के बढ़ते संकटों का सतही बाजारवादी समाधान पेश करने की कोशिश है।

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