Thursday, November 3, 2011

जिंदा कौमें और पांच साल

जिंदा कौमें और पांच साल

अजय सेतिया 
जनसत्ता, 3 नवंबर, 2011 : लोकपाल अभी बना नहीं। पता नहीं जन लोकपाल प्रारूप के अनुरूप बनेगा भी या नहीं। कहीं अण्णा हजारे को मजबूत लोकपाल के लिए फिर से आंदोलन न करना पड़े। लेकिन उससे पहले ही प्रधिनिधि वापसी के अधिकार (राइट टु रिकॉल) के लिए आंदोलन की डुगडुगी बजनी शुरू हो गई है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जयप्रकाश नारायण का नाम लेकर मतदाताओं को यह अधिकार दिए जाने की वकालत की है। शरद यादव और नीतीश कुमार समाजवादी परंपरा की उपज हैं। उनके नेता राममनोहर लोहिया कहा करते थे- जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार नहीं करतीं। 
जयप्रकाश नारायण समाजवादी विचारधारा के ही थे। उन्होंने जब 1974 में गुजरात की चिमनभाई पटेल सरकार के खिलाफ भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन शुरू किया, तो उसी समय जनप्रतिनिधियों को वापस बुलाने का नारा भी बुलंद किया था। नीतीश कुमार ने उसे याद करते हुए कहा है कि इमरजेंसी के बाद 1977 में बनी जनता सरकार ने इस पर ध्यान नहीं दिया। 
नीतीश कुमार उस सरकार में नहीं थे, लेकिन वे उस राजग सरकार में तो मंत्री थे जो जॉर्ज फर्नांडीज और शरद यादव जैसे पुराने समाजवादियों की मदद से बनी थी। उन्होंने कब मंत्रिमंडल में प्रतिनिधि वापसी का मुद््दा उठाया? राजग के घटक दलों में इस मुद््दे पर गहरे मतभेद हैं। ये मतभेद जनता सरकार के समय भी थे, इसलिए 1977 में इस पर विचार तक नहीं हुआ। इस पर सहमति 1989, 1996, 1998, 1999 की चारों सरकारों में भी नहीं बनी। इन चारों सरकारों का जिक्र यहां इसलिए किया जा रहा है, क्योंकि इन सभी में लोहिया और जेपी के अनुयायी शामिल थे। सिर्फ मोरारजी सरकार के सिर पर ठीकरा फोड़ना ठीक नहीं होगा। नीतीश कुमार 1977 का जिक्र करके कहीं अपने ही सहयोगियों- जॉर्ज फर्नांडीज और शरद यादव- को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश कर रहे हों तो अलग बात है। 
प्रतिनिधि वापसी के हक की बात बहुत लुभावनी और लोहिया के नारे के अनुरूप लगती है। लेकिन इसके लिए आंदोलन कहीं लोकतंत्र को कमजोर करने वाला तो नहीं होगा। अभी हालत यह है कि हमारे नुमाइंदे पंद्रह-बीस फीसद लोगों की ही नुमाइंदगी करते हैं। साठ-सत्तर फीसद मतदान होता है, जो पचीस-तीस उम्मीदवारों में बंट जाता है। उनमें सबसे ज्यादा वोट हासिल करने वाला हमारा नुमाइंदा बन जाता है। ऐसे नुमाइंदों को हम तभी हटा सकते हैं, जब पहले मौजूदा लोकतंत्र को मजबूत किया जाए। वरना उदारीकरण से देश में जो हालात पैदा हुए हैं, लोकतंत्र का भी वही हाल होगा। गरीबी और असमानता हटाए बिना उदारीकरण लाने से गरीब और गरीब होता जा रहा है, अमीर और अमीर। असमानता की खाई बढ़ती जा रही है। 
लोकतंत्र को मजबूत करने के लिए हमें सबसे पहले मतदान अनिवार्य करना होगा। मतदान नहीं करने वालों को पासपोर्ट, ड्राइविंग लाइसेंस, राशनकार्ड, सबसिडी पर रसोई गैस, केरोसिन बंद करना होगा। ऐसा करके हम सबको वोट देने के लिए मजबूर कर सकते हैं। 
आमतौर पर शहरी क्षेत्रों में मतदान अपेक्षया कम होता है। हमें देखना चाहिए कि क्या हम ई-वोटिंग का कोई प्रावधान कर सकते हैं। अमिताभ बच्चन 'कौन बनेगा करोड़पति' में एसएमएस वोटिंग करवा कर देश भर में कुछ ही क्षणों में लाखों वोट डलवा लेते हैं। तो क्या इस फार्मूले को देश भर में लागू नहीं किया जा सकता? मतदान अनिवार्य करके ई-वोटिंग का प्रावधान किया जाना चाहिए। जिस प्रकार कौन बनेगा करोड़पति में एसएमएस के जरिए ई-वोटिंग करने वाले अपना पांच रुपए का एसएमएस खर्च करते हैं, उसी तरह ई-वोटिंग करने वाले पर पांच रुपए लगाया जा सकता है। इससे वोटों की गिनती भी अपने आप हो जाएगी। 
दूसरा परिवर्तन यह करने की जरूरत है कि पचास फीसद से ज्यादा वोट हासिल करने वाले को ही निर्वाचित प्रतिनिधि माना जाए। भले ही इसके लिए दो बार चुनाव करवाना पडेÞ। अगर किसी को भी पचास फीसद वोट नहीं मिलते तो पहले स्थान पर आने वाले दो उम्मीदवारों में दुबारा मतदान करवाया जा सकता है। वोटिंग मशीन में किसी को भी वोट नहीं देने के विकल्प वाला बटन भी लगाया जाना चाहिए। अगर जीतने वाले के वोटों से ठुकराने वालों के वोट ज्यादा हों तो चुनाव रद््द किया जाना चाहिए। 
चुनाव प्रणाली में कम से कम दो-तीन परिवर्तन फौरन करने की जरूरत है। सबसे पहले, अदालत की तरफ से संज्ञान लिए जाने वाले अभियुक्त के चुनाव लड़ने पर फौरन पाबंदी लगे। ऐसा सुधार करने के लिए वाजपेयी के कार्यकाल में सर्वदलीय बैठक बुलाई गई थी, मगर समाजवादी पार्टी, बसपा और वामपंथियों के साथ-साथ दक्षिण की क्षेत्रीय पार्टियों ने भी उस पहल का विरोध किया था। उनकी दलील थी कि राजनीतिक आंदोलनों में शामिल लोगों के खिलाफ पुलिस अक्सर एफआईआर दर्ज करती है और अदालत भी आरोपपत्र तय कर देती है। इस मुद््दे पर गहन चर्चा नहीं हुई। वरना कानून की उन धाराओं को इससे अलग करने का फैसला किया जा सकता था, जो आमतौर पर आंदोलनकारियों पर लगाई जाती हैं। जैसे, आपातकाल के दौरान भी मीसा और डीआईआर के अलावा बहुत सारे कैदियों पर 107/151 लगाई गई थी। आमतौर पर धरने-प्रदर्शन करने वालों पर यही धारा लगाई जाती है। इसे चुनाव लड़ने से वंचित करने वाले आरोपपत्र से अलग किया जा सकता है। 
इसी तरह कुछ और धाराओं की पहचान की जा सकती है, जिनका आंदोलन के दौरान राजनीतिक कार्यकर्ताओं के विरुद्ध इस्तेमाल होता   है। अगर एक आरोपपत्र पर चुनाव से वंचित करने


की सहमति न बन पाए, तो दो आरोपपत्र का प्रावधान किया जा सकता है। लेकिन हत्या, बलात्कार, लूटपाट, चोरी, डकैती, अपहरण के आरोपियों को चुनाव में उम्मीदवार बनने से रोकना वक्त का तकाजा है। अच्छे उम्मीदवार उतारने का जिम्मा केवल राजनीतिक दलों पर नहीं छोड़ा जा सकता। 
पार्टियां जब स्वेच्छा से महिलाओं को तीस फीसद टिकट देने को तैयार नहीं हैं, तो उनसे बेदाग और अच्छे उम्मीदवारों की उम्मीद करना बेकार है। मौजूदा सरकार को किसी आंदोलन का इंतजार किए बिना चुनाव प्रणाली में इस तरह के कुछ सुधार तुरंत करने की पहल करनी चाहिए। 
चुनावों में धन-बल का दुरुपयोग रोकने के लिए भी कुछ ठोस कदम उठाए जाने जरूरी हैं। चुनाव आयोग ने खर्च पर निगरानी रखने के लिए पर्यवेक्षक तैनात करने शुरू किए हैं, जिसका अच्छा नतीजा दिखने लगा है। आयोग ने 'पेड न्यूज' के मामले में भी ऐतिहासिक कदम उठाते हुए उत्तर प्रदेश की विधायक (डीपी यादव की पत्नी) उमलेश यादव की सदस्यता खत्म कर दी है। पेड न्यूज की बाबत कुछ और ठोस कदम उठाने की जरूरत है। देखना होगा कि आने वाले दिनों में पृथ्वीराज चव्हाण और मधु कोड़ा के मामले में आयोग का फैसला क्या होता है। राजनीतिक दलों के प्रभाव से मुक्त फैसले की देश भर में तारीफ की जाएगी। पिछले दिनों संपादकों के एक संगठन ने प्रस्ताव पास करके कहा कि मीडिया को लोकपाल के दायरे से अलग रखा जाना चाहिए। 
इसी तरह की मांग गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) भी कर रहे हैं। मीडिया संगठनों को यह कहने का हक तब दिया जा सकता है जब वे अपने मालिक घरानों को पेड न्यूज से रोकने का माद््दा रखते हों। पिछले चुनाव में क्या क्षेत्रीय प्रिंट और क्या क्षेत्रीय विजुअल मीडिया, दोनों में राजनीतिकों की काली कमाई को दोनों हाथों से लूटने की होड़ लगी थी। 
इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में तो रैलियों के सीधे प्रसारण का मिनटों के हिसाब से काला धन बटोरा गया। इसलिए सरकार और चुनाव आयोग को पेड न्यूज का मसला अत्यंत गंभीरता से लेना चाहिए। निजी चैनलों पर भी यह बंदिश लगनी चाहिए कि वे सबका प्रसारण बराबरी के आधार पर करें। कोई चैनल किसी का पक्ष लेता हुआ दिखाई नहीं देना चाहिए। इसकी बाकायदा निगरानी होनी चाहिए।
देश में हर समय कहीं न कहीं चुनाव होते रहने से निजात पाने के लिए अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में लोकसभा और विधानसभा का कार्यकाल पांच साल निश्चित करने की बात चली थी। लेकिन राजनीतिक दलों में इस पर सहमति नहीं बन पाई। अब इसके ठीक उलट प्रतिनिधियों को वापस बुलाने के अधिकार की मुहिम चल पड़ी है, जिसके तहत कहीं भी कभी भी चुनाव कराना पड़ सकता है। 
यह सार्वजनिक धन की बरबादी के सिवा कुछ नहीं होगा। अभी हमारा लोकतंत्र इतना परिपक्व नहीं हुआ कि हम प्रतिनिधियों वापस बुलाने के अधिकार का कानून बना दें। स्विट्जरलैंड की नकल में हम राइट-टु-रिकॉल का कानून बना कर देश में लोकतंत्र को अस्थिर नहीं कर सकते। हमने 1996 से 1998 के तीन सालों में तीन लोकसभा चुनाव देखे हैं। देश में जरूरत प्रतिनिधि वापसी के कानून की नहीं। यह बहुत दूर की बात है। फिलहाल तो लोकसभा और विधानसभा का कार्यकाल पांच साल तय करने की जरूरत है, ताकि आए दिन चुनावों से बचा जा सके। 
एक सुझाव यह भी चल निकला है कि लोकपाल में ही वापस बुलाने का प्रावधान कर दिया जाए। किसी भी व्यक्ति को प्रधानमंत्री, केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री, राज्य के मंत्री या जज को वापस बुलाने का हक होना चाहिए। सुझाव यह दिया जा रहा है कि कोई भी नागरिक उपरोक्त पदासीन के खिलाफ बीस रुपए के हलफिया बयान पर जिलाधिकारी को आरोपपत्र सौंपेगा, जिसे लोकपाल या प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर डाल दिया जाएगा। फिर उसमें तीन रुपए की फीस लगाने पर हर मतदाता को सहमति, असहमति का वोट देने का हक दे दिया जाए। अगर शिकायत पर आधे से ज्यादा मतदाता सहमत हो जाएं, तो संबंधित पदासीन को हटा कर नया चुनाव करवाया जाए।
अभी देश में फर्जी मतदान को रोकने की पुख्ता व्यवस्था नहीं हुई, और हम ऐसी आदर्श व्यवस्था लागू करने की बात कर रहे हैं जो फिलहाल असंभव है। यह वैसी ही हालत होगी जैसी अधकचरी तैयारी और असमय उदारीकरण के कारण हो रही है। जिंदा कौमें पांच साल तक इंतजार कर सकती हैं। पहले बंदोबस्त अच्छे नुमाइंदे चुनने का होना चाहिए, न कि चुने हुए नुमाइंदों को वापस बुलाने का। पहले हम अच्छे नुमाइंदे चुनना तो सीख लें। जरूरत 'राइट टु रिकॉल' की नहीं, चुनाव सुधारों की है। 
हम जब तक जीतने वाले के लिए कम से कम पचास फीसद वोटों की शर्त नहीं लगाएंगे, तब तक पचास फीसद मतदाताओं को चुने हुए नुमाइंदे को वापस बुलाने का भी हक नहीं दिया जा सकता। फिर लोग तो नाली की सफाई और सड़कों की मरम्मत न होने से परेशान होकर सांसदों-विधायकों को वापस बुलाने की मांग करने लगेंगे। जबकि यह काम पंचायतों और नगरपालिकाओं का है। 
अगर हमें प्रतिनिधि वापसी का अधिकार लागू करना है तो पहले पंचायतों और नगरपालिकाओं में लागू करना चाहिए। छत्तीसगढ़ सरकार ने पंचायतों में लागू किया है और अब तक तीन सरपंच घर भेजे जा चुके हैं। कानून बिहार में भी है लेकिन अभी लागू नहीं हुआ। पहले हमें यह समझना चाहिए कि विधायकों और सांसदों का काम क्या है। उनका काम है अच्छे कानून बनाना। 'राइट टु रिकॉल' की   शर्त भी यही हो सकती है।

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