नई सरकार ही करे फैसला
संपादकीय / March 04, 2009
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चौदहवीं लोकसभा के आखिरी सत्र में भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास विधेयक पारित करवाने में सरकारी नाकामी के परिणामस्वरूप ऐसे संवेदनशील व विवादास्पद मुद्दे पर सुधार कार्यक्रम में और देरी होगी।
दूसरी ओर यह वरदान भी साबित हो सकता है क्योंकि दोनों विधेयक प्रभावहीन साबित हो चुकेथे। भूमि अधिग्रहण (संशोधन) विधेयक 2007 और पुनर्वास विधेयक 2007 को नंदीग्राम व सिंगुर में हुई घटनाओं को रोकने के मकसद से पेश किया जा रहा था।
सकारात्मक तौर पर इस विधेयक के जरिए भूमि अधिग्रहण कानून 1894 को बदला जाना था ताकि विकास के लिए जिन व्यक्तियों की जमीन का अधिग्रहण किया जा रहा है, उनके हितों की रक्षा हो सके। साथ ही उन लोगों के लिए भी जिन्हें अपनी जमीन बेचने को मजबूर किया जा रहा था।
इस तरह बलपूर्वक भूमि अधिग्रहण तीन मकसदों से किया जा रहा था - रणनीतिक इस्तेमाल, सार्वजनिक बुनियादी ढांचागत परियोजना और वाणिज्यिक इस्तेमाल के लिए, जो कि जनहित में था और जैसा सामाजिक ऑडिट केजरिए भी तय किया गया था।
यह उस नियम में भी अटक गया (जैसा कि इस अखबार ने पहली बार सिफारिश की थी) कि उद्योग अपनी परियोजनाओं के लिए जितनी जमीन की दरकार हो, उसका 70 फीसदी खुद वाणिज्यिक रूप से अधिग्रहण करे और इतना करने के बाद बाकी के लिए राज्य सरकार का दरवाजा खटखटाएं।
उद्योगों की शिकायत थी कि अगर कानून में इस तरह के बदलाव किए गए तो उनके लिए नया संयंत्र लगाना काफी मुश्किल हो जाएगा क्योंकि ऐसे में भूमि अधिग्रहण नामुमकिन हो जाएगा। हालांकि यह सही नहीं है, जैसा कि विशेष आर्थिक क्षेत्र का अनुभव बताता है। ऐसे मामलों में निजी तौर पर जरूरत के मुताबिक बिना किसी दबाव के जमीन का अधिग्रहण किया गया।
सिर्फ भारत में ही ऐसा है जहां के लोगों का जिस जमीन पर मालिकाना हक होता है, उसकी बात नहीं सुनी जाती। उदाहरण के तौर पर हीथ्रो और फ्रैंकफर्ट के आसपास के इलाकों में स्थानीय विचार काफी मायने रखते हैं। अगर वहां हवाई अड्डे का विस्तार होना है तो इसकी मंजूरी से पहले उनके विचार फैसले के लिहाज से काफी महत्त्वपूर्ण होते हैं।
पुनर्वास विधेयक में भी समझौते की शर्तों की बाबत स्वागत योग्य बातें हैं। मसलन वहां स्थापित होने वाले उद्योग की तरफ से जमीन अधिग्रहण के पहले पुनर्वास का काम हाथ में लेना और प्रभावित परिवार को रोजगार या इक्विटी में भागीदारी देना शामिल है। पर देखा गया है कि पुनर्वास कार्यक्रम अक्सर कागजों पर ही चलता रहता है और जमीन के बदले रकम पाने वाला इसे अक्सर उड़ा देता है।
यह भी पाया गया है कि जमीन अधिग्रहण का काम पूरा होने तक खेती व औद्योगिक दोनों तरह की जमीन की कीमत भी नाटकीय रूप से ऊंची हो जाती है। हालांकि दोनों विधेयकों के साथ कुछ समस्याएं भी हैं। उदाहरण के तौर पर पूरी प्रक्रिया निरर्थक साबित हो सकती है क्योंकि इनमें होने वाले संशोधन राज्यों पर बाध्यकारी नहीं होंगे।
कुछ राज्य सरकारों ने खुद की भूमि अधिग्रहण व पुनर्वास नीतियां लागू की हैं। इसे देखते हुए कहा जा सकता है कि पूरा मामला आम चुनाव के बाद बनने वाली नई सरकार के जिम्मे छोड़ देना चाहिए और वही इस पर फैसला ले कि कौन सा रास्ता बेहतर होगा।
Wednesday, March 4, 2009
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